फिंच रेटिंग्स की भारतीय
सहयोगी इंडिया रेटिंग्स के अनुसार भारतीय बैंकों के 500 बड़े कर्जदारों में से 82 का
कर्ज संकट में है और 83 का संकट के कगार पर। कर्ज संकट का अर्थ है कि 82 कारपोरेट का
ऋण बैड लोन की श्रेणी में आ चुका है। उधार लेने वाली कंपनियां न मूल और न ही ब्याज
चुका रही हैं। अन्य 83 को कर्ज की अदायगी में छूट (ब्याज दर कम करना, अवधि बढ़ाना आदि)
दी जा रही है। इन कर्जदारों में से अधिकांश ने सार्वजनिक बैंकों से पैसा उठा रखा है।
हिसाब लगाने पर पता चलता है कि बड़े उद्योगों द्वारा बैंकों से लिए गए एक तिहाई धन
की उगाही के आसार बहुत कम हैं। ऐसे में नए निवेश की आशा कैसे की जा सकती है? मौजूदा
स्थिति का असर अर्थव्यवस्था पर जो पड़ रहा है सो पड़ रहा है, इससे सार्वजनिक बैंक भी
लहूलुहान हो चुके हैं। इन बैंकों में आम आदमी की खून- पसीने की कमाई का पैसा जमा है।
यदि उद्योगों के कर्ज बैंक से रिस्ट्रक्चर किए जाते हैं तो उसकी कीमत अंतत: जनता को
ही चुकानी पड़ती है। हाल में सरकार ने खर्च कटौती के नाम पर स्वास्थ्य बजट में बीस
हजार करोड़ रपए कम कर दिए। हमारे देश में स्वास्थ्य बजट पहले ही काफी कम है। इस कटौती
की मार भी गरीब आदमी पर पड़ेगी। दूसरी ओर बड़े-बड़े उद्योग हैं जिन्हें कर्ज न चुकाने
पर भी सरकार और बैंक दंडित करने से हिचकिचाते हैं। ‘मेक इन इंडिया’
नारे को साकार करने के लिए मोदी
सरकार ने सार्वजनिक बैंकों पर नकेल कसनी शुरू कर दी है। पुणो में इन बैंकों के करीब
सौ आला अधिकारियों के दो दिवसीय सम्मेलन के बाद जो सिफारिशें छनकर आई, सरकार ने उन
पर शीघ्र निर्णय लेने का आश्वासन दिया है। इस सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने बैंक अधिकारियों
को भरोसा दिलाया कि सरकार उनके कामकाज में हस्तक्षेप नहीं करेगी और उन्हें पेशेवर तरीके
से काम करने की पूरी छूट मिलेगी। सम्मेलन के बाद जो सिफारिशें सरकार को सौंपी गई, उनमें
से अधिकांश पुरानी हैं। सबको पता है कि कर्ज न लौटाने वाले
उद्योग कानूनी दावपेंच का सहारा लेकर अक्सर बच जाते हैं। उन्हें विलफुल डिफाल्टर
(जान-बूझ कर कर्ज न लौटाना) घोषित करने में बैंकों को पसीना आ जाता है। अब मांग की
जा रही है कि जान-बूझकर कर्ज न लौटाने वाले उद्योगों के खिलाफ फौजदारी का मामला दर्ज
किया जाए तथा बदलाव की प्रक्रिया को आसान बनाया जाए ताकि प्रबंधन अपने हाथ में लेकर
बैंक अपना कर्ज वसूल सकें। साथ ही दोषी कंपनियों की संपत्ति बेचने की प्रक्रिया आसान
बनाई जाए। सीवीसी के निर्देश के अनुसार फिलहाल ऐसी संपत्ति खुली नीलामी के जरिए बेची
जा सकती है। बैंक चाहते हैं कि उन्हें अपने बैड लोन सीधे बेचने
की अनुमति दी जाए। सार्वजनिक बैंकों ने बैंक बोर्ड ब्यूरो और बैंक इंवेस्टमेंट
कंपनी के गठन की अनुमति भी मांगी है। ब्यूरो के जरिए बैंकों के वरिष्ठ पदों पर नियुक्ति
के लिए पेशेवरों का डेटाबेस तैयार किया जाएगा। यदि मंजूरी मिल गई तो सरकारी धन सीधे
नहीं, इंवेस्टमेंट कंपनी के माध्यम से लगेगा। धन जुटाने के लिए बैंकों को बाजार से
पैसा जुटाने की अनुमति भी मिलेगी। सरकारी बैंकों में सरकार का निवेश 51 फीसद से कम
करने का सुझाव भी दिया गया है। कैंपस सलेक्शन, अधिक वेतन देने
की छूट तथा उत्पादकता बढ़ाने के लिए हायर एंड फायर नीति लागू करने का विचार
भी सम्मेलन में उभरा है। गत चार दशकों के दौरान देश की तरक्की
में 27 सार्वजनिक बैंकों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उदारीकरण और निजीकरण
के मौजूदा दौर में भी उनकी पैठ कायम है। देश में 81 प्रतिशत शाखाएं सार्वजनिक बैंकों
की हैं और कुल जमा धन का 77 प्रतिशत हिस्सा उनके पास है। पिछले कुछ वर्षो में निजी
बैंकों का तेजी से विस्तार हुआ है, फिर भी आम आदमी अपना पैसा सार्वजनिक बैंकों में
ही सुरक्षित समझता है। लेकिन राजनीतिक हस्तक्षेप, भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन के कारण
इन बैंकों की माली हालत तेजी से बिगड़ी है। आज सार्वजनिक बैंकों द्वारा दिया गया
12.9 प्रतिशत कर्ज फंसा हुआ है, जबकि निजी बैंकों के मामले में यह रकम महज 4.4 फीसद
है। भ्रष्टाचार के कारण ही सार्वजनिक बैंकों का तीन गुना अधिक धन डूबने के कगार पर
है। ऐसे में उन्हें पटरी पर लाने के लिए दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है। पेशेवर
रवैया अपनाए जाने के साथ-साथ शीर्ष पदों पर बैठे अफसरों की जवाबदेही भी तय करनी होगी।
अच्छे काम पर ईनाम और बुरे काम पर दंड देने की स्पष्ट नीति अपनानी पड़ेगी। बैंक और
वित्तीय संस्थाएं हर देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ होते हैं। फिलहाल हमारी रीढ़ चोटिल
है। उसका शीघ्र इलाज शुरू किया जाना चाहिए. अनेक बड़े उद्योगों ने बैंकों से अरबों
रपए का ऋण ले रखा है जिसे वे लौटा नहीं रहे हैं। आल इंडिया बैंक एम्पलाइज एसोसिएशन
ने गत वर्ष एक सूची जारी की जिसमें एक करोड़ रपए से ज्यादा रकम के 406 बकायादारों के
नाम हैं। इस सूची में अनेक प्रतिष्ठित लोग और संगठन हैं। पिछले पांच वर्ष में बैंक
लगभग दो लाख करोड़ रपए के कर्ज को बट्टेखाते में डाल चुके हैं। इसका अर्थ है कि हर
साल बैंकों का चार खरब से ज्यादा पैसा डूब जाता है। सरकारी बैंकों में जालसाजी के बढ़ते
मामले, इस बात का प्रमाण हैं कि यह धंधा सुनियोजित है। पिछले तीन साल में गलत कर्ज
मंजूरी और जालसाजी से बैंकों को 22,743 करोड़ रपए का चूना लग चुका है। यानी हर दिन
बैंकों के 20.76 करोड़ रपए डूब जाते हैं। इस दौरान जालसाजी और पद दुरुपयोग के आरोप
में 6000 कर्मचारियों को निलंबित किया जा चुका है। इनमें बैंक अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक
तक शामिल हैं। बिना राजनीतिक संरक्षण के इतने बड़े पैमाने पर हेराफेरी असंभव है। रिजर्व
बैंक के पूर्व डिप्टी गवर्नर केसी चक्रवर्ती ने कुछ समय पहले लिखे अपने शोध पत्र में
बताया कि अधिकांश सार्वजनिक बैंक कर्ज वसूल न कर पाने से आज भारी घाटा उठा रहे हैं।
एनपीए को कम करने के लिए ऋण पुनर्निर्धारण (लोन रीस्ट्रक्चरिंग) का मार्ग अपनाया जा
रहा है जो बैंकों की सेहत के लिए ठीक नहीं है। एसबीआई, पीएनबी, इलाहाबाद बैंक, बैंक
ऑफ इंडिया, सेंट्रल बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा की अनुत्पादक परिसंपत्ति में पिछले चार साल
में तेजी से वृद्धि हुई है। तत्कालीन प्रधानंमत्री इंदिरा गांधी ने जब बैंकों का राष्ट्रीयकरण
किया तो तर्क दिया गया था कि बैंक देश के बड़े औद्योगिक घरानों के हाथ का औजार हैं।
उनमें जमा जनता का पैसा कारपोरेट जगत के हित में इस्तेमाल होता है। राष्ट्रीयकरण के
बाद सार्वजनिक बैंकों ने जनकल्याण से जुड़ी योजनाओं को अमलीजामा पहनाने में महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई है। लगता है कि अब फिर उन्हें निजी हाथों में सौंपने की तैयारी की जा
रही है। सार्वजनिक बैंकों में व्याप्त भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के बजाए पेशेवर बनाने
की आड़ में उनका निजीकरण किया जा रहा है। ऐसे में आम आदमी के कल्याण से जुड़ी योजनाएं
वरीयता सूची से स्वत: बाहर हो जाएंगी। (आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं) पिछले
कुछ वर्षो में निजी बैंकों का तेजी से विस्तार हुआ है, फिर भी आम आदमी अपना पैसा सार्वजनिक
बैंकों में ही सुरक्षित समझता है। लेकिन राजनीतिक हस्तक्षेप, भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन
के कारण इन बैंकों की माली हालत तेजी से बिगड़ी है भ्रष्टाचार के कारण ही निजी बैंकों
के मुकाबले सार्वजनिक बैंकों का तीन गुना अधिक धन डूबने के कगार पर है। ऐसे में उन्हें
पटरी पर लाने के लिए दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है। पेशेवर रवैया अपनाए जाने
के साथ- साथ शीर्ष पदों पर बैठे अफसरों की जवाबदेही भी तय करनी होगी डूबते कर्ज के
मर्ज से कैसे उबरें बैंक!
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