आब्जेक्शन का बहाना!





सही कहा है, आब्जेक्शन करने वालों को तो आब्जेक्शन करने का बहाना चाहिए। भाई लोगों को अब इस पर भी आपत्ति हो गयी है कि हमारे पुरखे हजारों साल पहले हवाई जहाज उड़ाते थे। उड़ाते थे यानी अब की तरह नहीं उड़ाते थे कि बनाए कोई और उड़ाए कोई। तब बिजनस वगैरह उतना बढ़ा जो नहीं था। और बिजनस तो तब बढ़ता जब लेन-देन के लिए मुद्रा वगैरह होती। दूर-दूर तक आवाजाही वगैरह होती। लोगों ने खरीदने-बेचने की चीजें बना ली होतीं। बेचने वाले ही नहीं, खरीदने वाले भी होते, वगैरह, वगैरह। यह सब नहीं था, सो बिजनस वगैरह नहीं था। लोगों को अपनी जरूरत की ज्यादातर चीजें खुद ही बनानी पड़ती थीं, यहां तक कि हवाई जहाज भी। कम से कम सात हजार साल पहले हमारे पुरखे अपने बनाए हवाई जहाजों में उड़ते फिरते थे। बताते हैं, शहरों के बीच तो नहीं पर ग्रहों के बीच जरूर उनका आना-जाना लगा रहता था। सो उन्होंने ऐसे हवाई जहाज बना डाले थे जो सीधे एक ग्रह से दूसरे तक उड़ान भरते थे। चांद-वांद तक तो शटल सर्विस चला करती थी। पर हमने पहले ही कहा है कि हमारी जरा सी बढ़ती, इन छद्म वैज्ञानिकता वालों से देखी नहीं जाती। इन्हें यह मानना मंजूर ही नहीं है कि हम किसी भी चीज में दुनिया में नंबर वन भी रहे हो सकते हैं। दूसरे जलें तो जलें ये तो अपने होकर भी, अपने ही देश के गौरव से जलते हैं। पहले सर्जरी और प्लास्टिक सर्जरी में हमारे पुरुखों की महारत की बात आयी, जिन्होंने इंसान के धड़ पर हाथी का सिर लगा दिया था, तो बंदे उस पर मुंह बना रहे थे। पर क्यों? सिर्फ इसलिए कि हाथी की छोड़िए, इंसान के धड़ पर दोबारा इंसान का सिर लगाने तक भी आज की सर्जरी नहीं पहुंच पायी है। यही क्यों मान लिया जाए कि हमारे पुरखे हाथी का सिर नहीं लगा सकते थे। यही क्यों मान लिया जाए कि विज्ञान में संतानें, अपने पुरखों से आगे ही होंगी! ऐसे ही जब कर्ण, कौरवों आदि के मामले में कृत्रिम गर्भाधान से लेकर अशरीरी संतानोत्पत्ति तक के उदाहरण सामने आए, तब भी बंदे नाक-भौं सिकोड़ रहे थे, जबकि यह सब तो अब हमारे पुरखों की संतानें भी कर के दिखा रही हैं। और अब हमारे पुरखों के हवाई जहाज पर भी नुक्ताचीनी। शुद्ध मशीन बनाने पर भी शक! यह तो हद्द हो गयी। हद्द से भी बद यह कि बंदे अपने पुरखों के हवाई जहाज पर तमीज से बहस तक करने के लिए तैयार नहीं हैं। बेचारी सरकार ने विज्ञान कांग्रेस में पुरखों के हवाई जहाज पर बहस करा दी, तब भी इन्हें बहस करना तक मंजूर नहीं है। यह भी नहीं बता रहे हैं कि पुरखे हवाई जहाज क्यों नहीं बना सकते थे! बस पुरखों के हवाई जहाज का मजाक उड़ा रहे हैं। मजाक में कोई पूछ रहा है कि सात हजार साल पहले वाले हवाई अड्डों पर सर्दियों में कोहरे में विमानों के उड़ने-उतरने का पक्का इंतजाम था या नहीं? तो कोई और पूछ रहा है कि सात हजार साल पहले हवाई अड्डे निजी क्षेत्र में थे या सार्वजनिक क्षेत्र में? हवाई अड्डे सरकार ने बनाए थे या पीपीपी मॉडल पर बनवाए गए थे? क्या तब भी विमानों की भीड़-भाड़ के चलते, हवाई उड़ानों में देरी आम बात थी? क्या तब भी विमानों के दरवाजे उड़ान के दौरान कभी-कभी खुल जाते थे? तब भी बाकायदा विमान सेवाएं होती थीं या ज्यादातर लोग निजी विमान में ही उड़ना पसंद करते थे? क्या तब भी सस्ती विमान सेवाएं थीं या पूरे दाम वाली विमान सेवाएं ही थीं? क्या तब भी सार्वजनिक विमान सेवाओं की कीमत पर निजी विमान सेवाओं को बढ़ावा दिया जाता था? क्या तब भी पायलटों की हड़तालें वगैरह होती थीं? इस पर तुर्रा यह कि इनके हिसाब से पुरखों के हवाई जहाज का या गणोश जी की सर्जरी का या कौरवों तथा छठे पांडव के जन्म का जिक्र करना, वैज्ञानिक सोच के खिलाफ है!

और चूंकि संविधान में ही वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने को कर्त्तव्य बताया गया है, इसलिए इन सबका जिक्र करना संविधान के भी खिलाफ है। इन छद्म-विज्ञानवालों का बस चले तो उसे इंसानियत के और राष्ट्र के खिलाफ भी बना देंगे। पर असली मुद्दा तो पुरखों के गौरव का है। और सच पूछिए कि सच्चा हो तो और झूठा हो तो, पुरखों को तो गौरव से फर्क ही क्या पड़ना है? असली मुद्दा उनकी संतानों का गौरव बढ़ाने का है कि आज पीछे हैं तो क्या हुआ, कभी हमारे पुरखे सबसे आगे थे। आज गौरव बढ़ता है तो राष्ट्र भी खुश, पब्लिक भी खुश, सेंसेक्स भी खुश। फिर ये विज्ञान का स्यापा बीच में कहां से आ गया। ये विज्ञान, विज्ञान क्या है?

डूबते कर्ज के मर्ज से कैसे उबरें बैंक!



फिंच रेटिंग्स की भारतीय सहयोगी इंडिया रेटिंग्स के अनुसार भारतीय बैंकों के 500 बड़े कर्जदारों में से 82 का कर्ज संकट में है और 83 का संकट के कगार पर। कर्ज संकट का अर्थ है कि 82 कारपोरेट का ऋण बैड लोन की श्रेणी में आ चुका है। उधार लेने वाली कंपनियां न मूल और न ही ब्याज चुका रही हैं। अन्य 83 को कर्ज की अदायगी में छूट (ब्याज दर कम करना, अवधि बढ़ाना आदि) दी जा रही है। इन कर्जदारों में से अधिकांश ने सार्वजनिक बैंकों से पैसा उठा रखा है। हिसाब लगाने पर पता चलता है कि बड़े उद्योगों द्वारा बैंकों से लिए गए एक तिहाई धन की उगाही के आसार बहुत कम हैं। ऐसे में नए निवेश की आशा कैसे की जा सकती है? मौजूदा स्थिति का असर अर्थव्यवस्था पर जो पड़ रहा है सो पड़ रहा है, इससे सार्वजनिक बैंक भी लहूलुहान हो चुके हैं। इन बैंकों में आम आदमी की खून- पसीने की कमाई का पैसा जमा है। यदि उद्योगों के कर्ज बैंक से रिस्ट्रक्चर किए जाते हैं तो उसकी कीमत अंतत: जनता को ही चुकानी पड़ती है। हाल में सरकार ने खर्च कटौती के नाम पर स्वास्थ्य बजट में बीस हजार करोड़ रपए कम कर दिए। हमारे देश में स्वास्थ्य बजट पहले ही काफी कम है। इस कटौती की मार भी गरीब आदमी पर पड़ेगी। दूसरी ओर बड़े-बड़े उद्योग हैं जिन्हें कर्ज न चुकाने पर भी सरकार और बैंक दंडित करने से हिचकिचाते हैं। ‘मेक इन इंडिया नारे को साकार करने के लिए मोदी सरकार ने सार्वजनिक बैंकों पर नकेल कसनी शुरू कर दी है। पुणो में इन बैंकों के करीब सौ आला अधिकारियों के दो दिवसीय सम्मेलन के बाद जो सिफारिशें छनकर आई, सरकार ने उन पर शीघ्र निर्णय लेने का आश्वासन दिया है। इस सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने बैंक अधिकारियों को भरोसा दिलाया कि सरकार उनके कामकाज में हस्तक्षेप नहीं करेगी और उन्हें पेशेवर तरीके से काम करने की पूरी छूट मिलेगी। सम्मेलन के बाद जो सिफारिशें सरकार को सौंपी गई, उनमें से अधिकांश पुरानी हैं। सबको पता है कि कर्ज न लौटाने वाले उद्योग कानूनी दावपेंच का सहारा लेकर अक्सर बच जाते हैं। उन्हें विलफुल डिफाल्टर (जान-बूझ कर कर्ज न लौटाना) घोषित करने में बैंकों को पसीना आ जाता है। अब मांग की जा रही है कि जान-बूझकर कर्ज न लौटाने वाले उद्योगों के खिलाफ फौजदारी का मामला दर्ज किया जाए तथा बदलाव की प्रक्रिया को आसान बनाया जाए ताकि प्रबंधन अपने हाथ में लेकर बैंक अपना कर्ज वसूल सकें। साथ ही दोषी कंपनियों की संपत्ति बेचने की प्रक्रिया आसान बनाई जाए। सीवीसी के निर्देश के अनुसार फिलहाल ऐसी संपत्ति खुली नीलामी के जरिए बेची जा सकती है। बैंक चाहते हैं कि उन्हें अपने बैड लोन सीधे बेचने की अनुमति दी जाए। सार्वजनिक बैंकों ने बैंक बोर्ड ब्यूरो और बैंक इंवेस्टमेंट कंपनी के गठन की अनुमति भी मांगी है। ब्यूरो के जरिए बैंकों के वरिष्ठ पदों पर नियुक्ति के लिए पेशेवरों का डेटाबेस तैयार किया जाएगा। यदि मंजूरी मिल गई तो सरकारी धन सीधे नहीं, इंवेस्टमेंट कंपनी के माध्यम से लगेगा। धन जुटाने के लिए बैंकों को बाजार से पैसा जुटाने की अनुमति भी मिलेगी। सरकारी बैंकों में सरकार का निवेश 51 फीसद से कम करने का सुझाव भी दिया गया है। कैंपस सलेक्शन, अधिक वेतन देने की छूट तथा उत्पादकता बढ़ाने के लिए हायर एंड फायर नीति लागू करने का विचार भी सम्मेलन में उभरा है। गत चार दशकों के दौरान देश की तरक्की में 27 सार्वजनिक बैंकों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उदारीकरण और निजीकरण के मौजूदा दौर में भी उनकी पैठ कायम है। देश में 81 प्रतिशत शाखाएं सार्वजनिक बैंकों की हैं और कुल जमा धन का 77 प्रतिशत हिस्सा उनके पास है। पिछले कुछ वर्षो में निजी बैंकों का तेजी से विस्तार हुआ है, फिर भी आम आदमी अपना पैसा सार्वजनिक बैंकों में ही सुरक्षित समझता है। लेकिन राजनीतिक हस्तक्षेप, भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन के कारण इन बैंकों की माली हालत तेजी से बिगड़ी है। आज सार्वजनिक बैंकों द्वारा दिया गया 12.9 प्रतिशत कर्ज फंसा हुआ है, जबकि निजी बैंकों के मामले में यह रकम महज 4.4 फीसद है। भ्रष्टाचार के कारण ही सार्वजनिक बैंकों का तीन गुना अधिक धन डूबने के कगार पर है। ऐसे में उन्हें पटरी पर लाने के लिए दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है। पेशेवर रवैया अपनाए जाने के साथ-साथ शीर्ष पदों पर बैठे अफसरों की जवाबदेही भी तय करनी होगी। अच्छे काम पर ईनाम और बुरे काम पर दंड देने की स्पष्ट नीति अपनानी पड़ेगी। बैंक और वित्तीय संस्थाएं हर देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ होते हैं। फिलहाल हमारी रीढ़ चोटिल है। उसका शीघ्र इलाज शुरू किया जाना चाहिए. अनेक बड़े उद्योगों ने बैंकों से अरबों रपए का ऋण ले रखा है जिसे वे लौटा नहीं रहे हैं। आल इंडिया बैंक एम्पलाइज एसोसिएशन ने गत वर्ष एक सूची जारी की जिसमें एक करोड़ रपए से ज्यादा रकम के 406 बकायादारों के नाम हैं। इस सूची में अनेक प्रतिष्ठित लोग और संगठन हैं। पिछले पांच वर्ष में बैंक लगभग दो लाख करोड़ रपए के कर्ज को बट्टेखाते में डाल चुके हैं। इसका अर्थ है कि हर साल बैंकों का चार खरब से ज्यादा पैसा डूब जाता है। सरकारी बैंकों में जालसाजी के बढ़ते मामले, इस बात का प्रमाण हैं कि यह धंधा सुनियोजित है। पिछले तीन साल में गलत कर्ज मंजूरी और जालसाजी से बैंकों को 22,743 करोड़ रपए का चूना लग चुका है। यानी हर दिन बैंकों के 20.76 करोड़ रपए डूब जाते हैं। इस दौरान जालसाजी और पद दुरुपयोग के आरोप में 6000 कर्मचारियों को निलंबित किया जा चुका है। इनमें बैंक अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक तक शामिल हैं। बिना राजनीतिक संरक्षण के इतने बड़े पैमाने पर हेराफेरी असंभव है। रिजर्व बैंक के पूर्व डिप्टी गवर्नर केसी चक्रवर्ती ने कुछ समय पहले लिखे अपने शोध पत्र में बताया कि अधिकांश सार्वजनिक बैंक कर्ज वसूल न कर पाने से आज भारी घाटा उठा रहे हैं। एनपीए को कम करने के लिए ऋण पुनर्निर्धारण (लोन रीस्ट्रक्चरिंग) का मार्ग अपनाया जा रहा है जो बैंकों की सेहत के लिए ठीक नहीं है। एसबीआई, पीएनबी, इलाहाबाद बैंक, बैंक ऑफ इंडिया, सेंट्रल बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा की अनुत्पादक परिसंपत्ति में पिछले चार साल में तेजी से वृद्धि हुई है। तत्कालीन प्रधानंमत्री इंदिरा गांधी ने जब बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया तो तर्क दिया गया था कि बैंक देश के बड़े औद्योगिक घरानों के हाथ का औजार हैं। उनमें जमा जनता का पैसा कारपोरेट जगत के हित में इस्तेमाल होता है। राष्ट्रीयकरण के बाद सार्वजनिक बैंकों ने जनकल्याण से जुड़ी योजनाओं को अमलीजामा पहनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लगता है कि अब फिर उन्हें निजी हाथों में सौंपने की तैयारी की जा रही है। सार्वजनिक बैंकों में व्याप्त भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के बजाए पेशेवर बनाने की आड़ में उनका निजीकरण किया जा रहा है। ऐसे में आम आदमी के कल्याण से जुड़ी योजनाएं वरीयता सूची से स्वत: बाहर हो जाएंगी। (आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं) पिछले कुछ वर्षो में निजी बैंकों का तेजी से विस्तार हुआ है, फिर भी आम आदमी अपना पैसा सार्वजनिक बैंकों में ही सुरक्षित समझता है। लेकिन राजनीतिक हस्तक्षेप, भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन के कारण इन बैंकों की माली हालत तेजी से बिगड़ी है भ्रष्टाचार के कारण ही निजी बैंकों के मुकाबले सार्वजनिक बैंकों का तीन गुना अधिक धन डूबने के कगार पर है। ऐसे में उन्हें पटरी पर लाने के लिए दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है। पेशेवर रवैया अपनाए जाने के साथ- साथ शीर्ष पदों पर बैठे अफसरों की जवाबदेही भी तय करनी होगी डूबते कर्ज के मर्ज से कैसे उबरें बैंक!

सार्वजनिक टायलेट की सुविधा सबसे अहम






मुंबई हाईकोर्ट ने पिछले दिनों एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए महाराष्ट्र के सभी नगर निगमों को निर्देश दिया है कि वे 31 मार्च 2015 तक सार्वजनिक स्थलों तथा मुख्य मागरें के किनारे महिला शौचालय बनवाने का काम पूरा करें। कोर्ट के मुताबिक निर्धारित समय के अन्दर शौचालयों के लिए नीति बनाने का निर्देश सबसे अहम है क्योंकि सिविक एजेंसियां इस काम के लिए हामी तो भरती हैं लेकिन काम पूरा नहीं करती हैं।

फुटपाथ पर गाड़ियां

गाड़ियां फिर से फुटपाथ पर चढ़ने लगी हैं जी। वैसे एक दिन वह भी आएगा जब दुनिया में इंसान कम और गाड़ियां ज्यादा हो जाएंगी। तब वे फुटपाथ पर चलने भी लगेंगी। खैर, बहुत दिन से वे फुटपाथ पर चढ़ नहीं रही थीं। ऐसा नहीं था कि लक्जरी गाड़ियां बननी बंद हो गयी थीं। ऐसा भी नहीं था कि अमीरजादों ने शराब के नशे में गाड़ियां चलाने से तौबा कर ली थी या रात की पार्टियों में जाना बंद कर दिया था या फिर उनमें स्पीड का क्रेज कम हो गया था। ऐसा तो बिल्कुल भी नहीं था कि बेघरों, गरीबों, भिखमंगों आदि ने फुटपाथों पर सोना बंद कर

नाक की महिमा


पुराने जमाने से लेकर नए दौर तक नाक की वही पोजिशन है। उसमें जरा भी बदलाव नहीं आया है। शरीर के अंगों में यदि कोई अहंकारी है तो वह नाक ही है। अपने अहंकार के कारण नाक ने अपनी नाक कटवाई भी है और ऊंची भी की है। अपनी नाक ऊंची रखने के चक्कर में कई बार नाक को नाक रगड़नी भी पड़ती है। यदि नाक वाला कोई है तो बिना नाकवाले भी इफरात में मौजूद हैं। कहा भी तो जाता है कि नकटों के मुंह कौन लगे? कोई एक नाक वाला होता है तो कोई-कोई दो नाक वाले भी होते हैं, लेकिन ऐसे लोग भरोसे के लायक नहीं होते। नाक की सीध में चलने वाला किसी से भी टकरा जाता है, लेकिन गांव वालों से अगर रास्ता पूछें तो वे यही बताते हैं कि भय्या, नाक की सीध में चले जाओ!

परिवार में दरार

कहते हैं कि यात्रा शिक्षा का सबसे बड़ा माध्यम होती है। यात्रा के दौरान मिलने-जुलने के क्रम में आप काफी कुछ देखते हैं, सीखते हैं और समझते हैं। यह सौ फीसदी सच है। इस गर्मी की छुट्टी में घर जाते समय टुकड़ों-टुकड़ों में कई शहरों की मैंने यात्रा की। ट्रेन से, बस से और टैक्सी से भी। अनजान भी मिले और कुछ जान-पहचान वाले भी। पुराने मित्र भी मिले और कुछ नए भी। कुछ नए रिश्ते बने तो कुछ रिश्तों पर जमीं गर्द को हटाकर उन्हें तरोताजा करने की कोशिश भी हुई, लेकिन इन सबके बीच जिन कुछ कटु सच्चाइयों ने दिल को थोड़ा हैरान-परेशान और लाचार कर दिया, जब अपनी आंखों कई परिवारों को टूटते हुए देखा। पता चला एक पुराने सहपाठी ने अपने बूढ़े मां-बाप को अपने से अलग कर दिया है। उसके मां-बाप जब किसी परिचित से मिलते हैं तो उनका रुदन रुकता नहीं है। एक मित्र के पास गया तो तीन मंजिला इमारत वाली घर में पारिवारिक गठबंधन में इतनी दरारें दिखीं, तो वहां से निकल गया। एक परिचित अपने भाई की बात आने पर कुछ यूं बोले-तीन साल से घर नहीं आया। मां-बाप की फिक्र भी नहीं है उसे। जब से शादी हुई है, अपनी नई जिंदगी में ऐसे रमा है कि मां-बाप भूली-बिसरी कहानी हो गए हैं। ट्रेन में एक अधेड़ महिला से सामना हुआ। पता चला भाई ने आम खाने के लिए बुलाया है। बातचीत का क्रम चला तो परिवार की बात छिड़ी, लेकिन बहुओं पर बात आकर रुक गई। उन्होंने बहुत कोशिश की यह बताने की कि उन्हें आजकल की बहुओं से ऐतराज है, लेकिन उनके चेहरे की शिकन बता रही थी कि सब कुछ ठीक नहीं है। दिल्ली में भी कई बार ऐसे किस्से सुनने को मिलते हैं। एक दिन टीवी पर एक बूढ़ी मां को रोते हुए देखा। पता चला बेटे ने संपत्ति के विवाद के कारण मां को घर में घुसने नहीं दिया। मां घर के बाहर बैठकर रोए जा रही है। दरअसल यहां बात यह नहीं है कि इस तरह के मां-बाप गलत हैं या फिर आजकल के बेटे-बहू। अलग-अलग परिस्थितियों के सच अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन एक बात तो तय है कि आधुनिकीकरण की दौड़ में पारिवारिक रिश्ते गौड़ होने लगे हैं। हर कोई अपनी अलग दुनिया बनाना चाहता है। आखिर इसमें कुछ गलत भी नहीं है, लेकिन रिश्तों की गर्माहट बनी रहे इसका ख्याल तो उन्हें किसी भी हाल में रखना ही चाहिए। अपना घर, अपनी दुनिया और अपने बीवी-बच्चों के आसपास बने रहने की होड़ ऐसी है कि अपने मां-बाप दूर बैठे सिसकते रहते हैं। आखिर यह कैसी आधुनिकता है और इससे क्या फायदा?

सत्यमेव का सच!

 सत्य की महिमा कौन नहीं जानता? कहते हैं कि सच परेशान हो सकता है लेकिन पराजित नहीं। गांधी आजीवन सत्य के साथ प्रयोग करते रहे और बहुतों का मानना है कि उनके सत्याग्रह ने अंग्रेजों को देश छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। आजाद भारत के निर्माताओं ने शायद इसे ही ध्यान में रखकर राष्ट्र का आदर्श वाक्य चुना सत्यमेव जयते। जल्दी ही थाने-कचहरियों से लेकर तमाम सरकारी इमारतों और दफ्तरों पर तीन सिंहों के सिर वाले अशोक स्तंभ के ठीक नीचे यह आदर्श वाक्य चुन दिया गया। यह और बात है कि इन सरकारी इमारतों में सच का गला सबसे ज्यादा घोंटा गया। समय के साथ सच परेशान ही नहीं, पराजित दिखने लगा। कुछ इस हद तक कि लोगों की निराशा और हताशा बेकाबू होने लगी। उनका गुस्सा अलग-अलग शक्लों में फूटने लगा। इस तरह स्टेज पूरी तरह सेट हो चुका था। यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत यानी अब भारत को जरूरत थी एक अवतार की जो उसे इस अधर्म से निकाले और सत्य की जीत में खोई आस्था को बहाल करे। अब समय बदल चुका है। यह कलियुग यानी मीडियायुग है। इस युग में अवतार पैदा नहीं होता, बल्कि गढ़ा जाता है। मानिए या नहीं, आज मीडिया ही नायक बनाता है वही खलनायक तय करता है। मीडिया के कंधे पर चढ़ पहले अन्ना हजारे आए भ्रष्टाचार के खिलाफ युद्ध का ऐलान करते हुए। उनके पास भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए एक जादू की छड़ी थी लोकपाल। रातों-रात तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें भ्रष्टाचार से आजादी दूंगा के नारे गूंजने लगे। नतीजा, चैनलों पर देश हिलने लगा, भावनाएं उबलने लगीं। लगा कि क्रांति अब हुई कि तब हुई, लेकिन अफसोस क्रांति नहीं हुई। हां, लोगों के मन का गुबार जरूर निकल गया। अलबत्ता, थोड़ी कसक रह गई। अब वह कसक पूरी करने अभिनेता आमिर खान आए हैं। यह कहते हुए कि जब दिल पर लगेगी, तभी बात बनेगी। यह रियलिटी-टाक शो हर रविवार को दिन में 11 बजे दिखाया जाएगा। जबरदस्त प्रचार और मार्केटिंग अभियान के साथ शुरू हुए सत्यमेव जयते के पहले एपीसोड में आमिर ने कन्या भ्रूण हत्या के मुद्दे को खूब जोरशोर से उठाया। इसमें कुछ तथ्य और तर्क थे और बहुत ज्यादा भावनाएं और आंसू। सबसे बढ़कर मुद्दे का तुरता और आसान फास्टफूड समाधान है। इस तरह दर्शकों के लिए विरेचन (कैथार्सिस) का पूरा इंतजाम है। नतीजा बात दिल पर ही लगी और मीडिया पंडितों की मानें तो बात बन भी गई और सत्यमेव जयते को टीवी का नया गेम चेंजर मान लिया गया।