आब्जेक्शन का बहाना!





सही कहा है, आब्जेक्शन करने वालों को तो आब्जेक्शन करने का बहाना चाहिए। भाई लोगों को अब इस पर भी आपत्ति हो गयी है कि हमारे पुरखे हजारों साल पहले हवाई जहाज उड़ाते थे। उड़ाते थे यानी अब की तरह नहीं उड़ाते थे कि बनाए कोई और उड़ाए कोई। तब बिजनस वगैरह उतना बढ़ा जो नहीं था। और बिजनस तो तब बढ़ता जब लेन-देन के लिए मुद्रा वगैरह होती। दूर-दूर तक आवाजाही वगैरह होती। लोगों ने खरीदने-बेचने की चीजें बना ली होतीं। बेचने वाले ही नहीं, खरीदने वाले भी होते, वगैरह, वगैरह। यह सब नहीं था, सो बिजनस वगैरह नहीं था। लोगों को अपनी जरूरत की ज्यादातर चीजें खुद ही बनानी पड़ती थीं, यहां तक कि हवाई जहाज भी। कम से कम सात हजार साल पहले हमारे पुरखे अपने बनाए हवाई जहाजों में उड़ते फिरते थे। बताते हैं, शहरों के बीच तो नहीं पर ग्रहों के बीच जरूर उनका आना-जाना लगा रहता था। सो उन्होंने ऐसे हवाई जहाज बना डाले थे जो सीधे एक ग्रह से दूसरे तक उड़ान भरते थे। चांद-वांद तक तो शटल सर्विस चला करती थी। पर हमने पहले ही कहा है कि हमारी जरा सी बढ़ती, इन छद्म वैज्ञानिकता वालों से देखी नहीं जाती। इन्हें यह मानना मंजूर ही नहीं है कि हम किसी भी चीज में दुनिया में नंबर वन भी रहे हो सकते हैं। दूसरे जलें तो जलें ये तो अपने होकर भी, अपने ही देश के गौरव से जलते हैं। पहले सर्जरी और प्लास्टिक सर्जरी में हमारे पुरुखों की महारत की बात आयी, जिन्होंने इंसान के धड़ पर हाथी का सिर लगा दिया था, तो बंदे उस पर मुंह बना रहे थे। पर क्यों? सिर्फ इसलिए कि हाथी की छोड़िए, इंसान के धड़ पर दोबारा इंसान का सिर लगाने तक भी आज की सर्जरी नहीं पहुंच पायी है। यही क्यों मान लिया जाए कि हमारे पुरखे हाथी का सिर नहीं लगा सकते थे। यही क्यों मान लिया जाए कि विज्ञान में संतानें, अपने पुरखों से आगे ही होंगी! ऐसे ही जब कर्ण, कौरवों आदि के मामले में कृत्रिम गर्भाधान से लेकर अशरीरी संतानोत्पत्ति तक के उदाहरण सामने आए, तब भी बंदे नाक-भौं सिकोड़ रहे थे, जबकि यह सब तो अब हमारे पुरखों की संतानें भी कर के दिखा रही हैं। और अब हमारे पुरखों के हवाई जहाज पर भी नुक्ताचीनी। शुद्ध मशीन बनाने पर भी शक! यह तो हद्द हो गयी। हद्द से भी बद यह कि बंदे अपने पुरखों के हवाई जहाज पर तमीज से बहस तक करने के लिए तैयार नहीं हैं। बेचारी सरकार ने विज्ञान कांग्रेस में पुरखों के हवाई जहाज पर बहस करा दी, तब भी इन्हें बहस करना तक मंजूर नहीं है। यह भी नहीं बता रहे हैं कि पुरखे हवाई जहाज क्यों नहीं बना सकते थे! बस पुरखों के हवाई जहाज का मजाक उड़ा रहे हैं। मजाक में कोई पूछ रहा है कि सात हजार साल पहले वाले हवाई अड्डों पर सर्दियों में कोहरे में विमानों के उड़ने-उतरने का पक्का इंतजाम था या नहीं? तो कोई और पूछ रहा है कि सात हजार साल पहले हवाई अड्डे निजी क्षेत्र में थे या सार्वजनिक क्षेत्र में? हवाई अड्डे सरकार ने बनाए थे या पीपीपी मॉडल पर बनवाए गए थे? क्या तब भी विमानों की भीड़-भाड़ के चलते, हवाई उड़ानों में देरी आम बात थी? क्या तब भी विमानों के दरवाजे उड़ान के दौरान कभी-कभी खुल जाते थे? तब भी बाकायदा विमान सेवाएं होती थीं या ज्यादातर लोग निजी विमान में ही उड़ना पसंद करते थे? क्या तब भी सस्ती विमान सेवाएं थीं या पूरे दाम वाली विमान सेवाएं ही थीं? क्या तब भी सार्वजनिक विमान सेवाओं की कीमत पर निजी विमान सेवाओं को बढ़ावा दिया जाता था? क्या तब भी पायलटों की हड़तालें वगैरह होती थीं? इस पर तुर्रा यह कि इनके हिसाब से पुरखों के हवाई जहाज का या गणोश जी की सर्जरी का या कौरवों तथा छठे पांडव के जन्म का जिक्र करना, वैज्ञानिक सोच के खिलाफ है!

और चूंकि संविधान में ही वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने को कर्त्तव्य बताया गया है, इसलिए इन सबका जिक्र करना संविधान के भी खिलाफ है। इन छद्म-विज्ञानवालों का बस चले तो उसे इंसानियत के और राष्ट्र के खिलाफ भी बना देंगे। पर असली मुद्दा तो पुरखों के गौरव का है। और सच पूछिए कि सच्चा हो तो और झूठा हो तो, पुरखों को तो गौरव से फर्क ही क्या पड़ना है? असली मुद्दा उनकी संतानों का गौरव बढ़ाने का है कि आज पीछे हैं तो क्या हुआ, कभी हमारे पुरखे सबसे आगे थे। आज गौरव बढ़ता है तो राष्ट्र भी खुश, पब्लिक भी खुश, सेंसेक्स भी खुश। फिर ये विज्ञान का स्यापा बीच में कहां से आ गया। ये विज्ञान, विज्ञान क्या है?

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