मुंबई हाईकोर्ट ने
पिछले दिनों एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए महाराष्ट्र के सभी नगर निगमों को निर्देश
दिया है कि वे 31 मार्च 2015 तक सार्वजनिक स्थलों तथा मुख्य मागरें के किनारे महिला
शौचालय बनवाने का काम पूरा करें। कोर्ट के मुताबिक निर्धारित समय के अन्दर शौचालयों
के लिए नीति बनाने का निर्देश सबसे अहम है क्योंकि सिविक एजेंसियां इस काम के लिए हामी
तो भरती हैं लेकिन काम पूरा नहीं करती हैं।
मिलून सारयाजणी नामक महिला मुक्ति केन्द्रित
पत्रिका द्वारा डाली गई इस पिटीशन को लेकर न्यायमूर्ति अभय ओक तथा अजय गडकरी की पीठ
ने सुझाव दिया कि शौचालयों के प्रबंधन के लिए गैर-सरकारी संस्थाओं की भागीदारी सुनिश्चित
होनी चाहिए। नवी मुंबई नगर निगम ने शौचालयों के रख-रखाव के लिए जब शुल्क बढ़ाने का
सुझाव दिया तो कोर्ट ने जवाब दिया कि शुल्क उतना ही रखा जाए, जितना आम औरत भुगतान कर
सके। वास्तव में यह समझ से परे है कि आखिर नीति निर्माताओं का ध्यान महिलाओं से जुड़ी
इस निहायत नैसर्गिक जरूरत की तरफ क्यों नहीं जाता है। उन्हें इस बात का एहसास कब होगा
कि सार्वजनिक स्थलों पर टॉयलेट न होने से महिलाओं को कितनी परेशानी का सामना करना पड़ता
है। कायदे से जिस जमाने में महिलाओं की सार्वजनिक दायरे में ज्यादा शिरकत नहीं थीं,
उस समय भी उनके लिए यह सुविधा होनी चाहिए थी लेकिन अब जब बड़ी संख्या में वह घर के
बाहर होती हैं तो सार्वजनिक शौचालय का अभाव उनके लिए बहुत बड़ी समस्या नजर आता है।
तमाम दावों और प्रयासों के बाद आज भी सार्वजनिक दायरे में यह बुनियादी और अनिवार्य
जरूरत पूरी नहीं की जा सकी है। इस मुद्दे पर वर्तमान सरकार से पहले भी गृह मंत्रालय
ने पुलिस विभाग को पत्र लिख कर महिला पुलिस कर्मियों के लिए थानों में शौचालय की जरूरी
व्यवस्था करने पर जोर दिया था। इस दौरान यह तथ्य भी सामने आया था कि जनवरी 2012 के
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक कुल 84,479 महिला पुलिस कर्मी हैं जो पुलिस बल का 5 फीसद
बैठता है। शौचालय की समस्या के दो पहलू हैं। निजी तथा सार्वजनिक दायरे में उनकी उपलब्धता।
यह बात समझना आवश्यक है कि घरों के अंदर शौचालय जहां किसी की भी व्यक्तिगत जिम्मेदारी
होती है वहीं सार्वजनिक दायरे में- चाहे वह हाट-बाजार हो या किसी भी प्रकार का कार्यस्थल,
इस सुविधा को उपलब्ध कराना सरकारी तथा नागरिक इकाइयों यानी नगरनिगम तथा पंचायतों की
जिम्मेदारी बनती है। यहां यह भी रेखांकित करना जरूरी है कि सार्वजनिक स्थलों पर इस
सुविधा का अभाव महिलाओं की गतिशीलता को बाधित करता है इसलिए यदि हर घर में शौचालय की
मुहिम पूरी भी हो जाती है तो भी महिलाओं के लिए सार्वजनिक स्थलों पर जन सुविधाओं के
समुचित प्रबंधन बिना इसे पूरा नहीं माना जा सकता है। यही नहीं, सार्वजनिक स्थल पर इस
जरूरत से निवृत्त होने के उपक्रम में उनकी निजता की रक्षा हर हाल में होनी ही चाहिए।
महिला शौचालय के मुद्दे की विडम्बना देखिए कि सार्वजनिक स्थलों पर जहां यह सुविधा उपलब्ध
होती भी है वहां भी सुरक्षा के नाम पर इन पर अक्सर ताले ही जड़े मिलते हैं। कहा जाता
है कि वहां असामाजिक तत्व घुसपैठ करते हुए महिलाओं के लिए खतरा पैदा कर देते हैं। ऐसी
स्थिति में महिलाएं अमूमन इनके प्रयोग से बचती देखी जाती हैं। शहरों में कहीं भी इसे
बहुत आसानी से देखा जा सकता है कि अक्सर महिलाओं के शौचालयों पर, यहां तक कि अस्पतालों
में भी (दिल्ली के प्रतिष्ठित सरकारी अस्पताल अम्बेडकर अस्पताल में भी यही नजारा देखने
को मिला) ताला लगा रहता है। दिल्ली में एमसीडी में पुरु ष शौचालय खुला होता है लेकिन
अक्सर महिला शौचालय बन्द मिलेगा या उपयोग करने लायक ही नहीं होगा। अक्सर निगम कर्मचारी
उसे अपना झाडू आदि रखने के लिए स्टोर रूम के रूप में इस्तेमाल
करते हैं। अध्ययन बताते हैं कि महिलाओं को निवृत्त होने में अधिक समय लगता है।
इसी वजह से कई पश्चिमी देशों में इसके लिए विशेष नियम बनाये गये हैं। न्यूयॉर्क से
लेकर अमेरिका के विभिन्न शहरों की नगरपालिकाओं ने नियम बनाया है कि नवनिर्मित किसी
भी इमारत में पुरु ष तथा स्त्रियों के लिये बनने वाले टायलेटों का अनुपात 1:2 रहेगा।
न्यूयॉर्क के कापरेरेशन ने शौचालय के मसले पर बाकायदा रेस्टरूम इक्विटी बिल पास किया,
जिसमें नियम बनाया गया कि सार्वजनिक स्थानों पर पुरु षों व महिलाओं के लिए बनने वाले
शौचालयों में 1:2 का अनुपात होगा। पुरु षों के लिए अगर एक शौचालय बनेगा तो महिलाओं
के लिए दो बनेंगे। कौन्सिल ने पेश अध्ययन पर गंभीरता से विचार किया कि पुरु षों की
तुलना में महिलाओं को निवृत्त होने में अधिक समय लगता है। दिलचस्प है कि अपर्याप्त
टायलेट सुविधाओं को यौन उत्पीड़न का प्रकार मानने के बारे में दायर एक जनहित याचिका
के बाद यह मसला र्चचा में आया था। लेकिन जहां तक अपने देश की बात है तो यहां यह अनुपात
1:1 होने में भी कई दशक बीत जाएंगे। सार्वजनिक दायरे में शौचालयों की अनुपलब्धता की
छाया स्कूलों पर भी दिखती है। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एजुकेशन प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन
(नीपा) के एक अध्ययन के मुताबिक देशभर मे सिर्फ 32 प्रतिशत स्कूलों में ही लड़कियों
के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था है जबकि ग्रामीण इलाकों में यह महज 29.41 प्रतिशत ही
है। स्कूलों में 40 बच्चों पर एक शौचालय का नियम है और बालिकाओं के लिए 25 पर एक शौचालय
का सुझाव है। लेकिन यह सब कागज पर ही दिखता है। दिल्ली के अधिकतर सरकारी स्कूलों में
एक या दो शौचालय में भी शायद ही कोई साफ-सुथरा तथा अच्छी हालत में हो। बड़ी होती बालिकाएं
मासिक धर्म के समय शौचालय या वहां पानी का इंतजाम न रहने के कारण स्कूल से अनुपस्थित
होने को मजबूर होती हैं। स्वास्थ्य की मामूली जानकारी रखने वाला भी बता सकता है कि
गंदगी के कारण स्त्रियां बहुधा मूत्रनली के संक्रमण का शिकार हो जाती हैं। दिल्ली की
पुनर्वास बस्तियों में किशोरियों के साथ की गयी कार्यशालाओं के दौरान यही सुनने को
मिला कि किस तरह उनकी कमी बच्चियों की शिक्षा को प्रभावित कर रही है। सवाल है कि सार्वजनिक
स्थलों पर महिलाओं की इस जरूरत पर आखिर नियोजनकर्ताओं का ध्यान क्यों नहीं जाता? क्या
उन्होंने माना होगा कि वे सार्वजनिक दायरे में प्रवेश की हकदार नहीं हैं? बहरहाल, अब
जब महिलाएं हर क्षेत्र में उपस्थित हैं तो यह गलती सुधार लेनी चाहिए। स्वच्छ शौचालय
की सुविधा हर व्यक्ति का बुनियादी अधिकार है।
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