फुटपाथ पर गाड़ियां

गाड़ियां फिर से फुटपाथ पर चढ़ने लगी हैं जी। वैसे एक दिन वह भी आएगा जब दुनिया में इंसान कम और गाड़ियां ज्यादा हो जाएंगी। तब वे फुटपाथ पर चलने भी लगेंगी। खैर, बहुत दिन से वे फुटपाथ पर चढ़ नहीं रही थीं। ऐसा नहीं था कि लक्जरी गाड़ियां बननी बंद हो गयी थीं। ऐसा भी नहीं था कि अमीरजादों ने शराब के नशे में गाड़ियां चलाने से तौबा कर ली थी या रात की पार्टियों में जाना बंद कर दिया था या फिर उनमें स्पीड का क्रेज कम हो गया था। ऐसा तो बिल्कुल भी नहीं था कि बेघरों, गरीबों, भिखमंगों आदि ने फुटपाथों पर सोना बंद कर
दिया था और ऐसा भी नहीं था कि सरकार ने इतने नाइट शेल्टर बना दिए कि ये बेघर और भिखमंगे फुटपाथ पर सोना भूल गए। सरकार का हिसाब भी दानवीरों जैसा ही है। क्योंकि दानवीरों को भी गरीबों की याद तभी आती है जब कड़ाके की ठंड पड़ने लगती है। तब वे इन गरीबों, बेघरों और भिखमंगों को कंबल बांटते हैं और सरकार भी तभी इनके लिए नाइट शेल्टरों का इंतजाम करती है। वैसे भी जब हमारे यहां अच्छे-खासे, खाते-पीते गृहस्थ ही गर्मी में गली में चारपाई लगाकर सोना पसंद करते हैं- एकदम खुले में, तो ये गरीब और भिखमंगे नाइट शेल्टरों में क्यों घुटते रहें! सुना है, गृहस्थों में खुले में सोने का यह फैशन भी फिर से लौटा है। क्योंकि सरकार बिजली ही नहीं दे पा रही है। क्योंकि एक आंधी ऐसी आयी जो सारी बिजली को उड़ा ले गयी। आगे से हमेशा यह दुआ जरूर करना कि एनडीए के राज में कभी आंधी न आए। अगर आ गयी तो फिर सालों तक बिजली नहीं मिलेगी। खैर, लोगों की बाहर खुले में सोने की इसी पसंद और नए फैशन के चलते सरकार बिजली नहीं देती। क्या फायदा बिजली देने का, लोग सोएंगे तो गली में ही या फिर छत पर, प्रदूषणयुक्त हवा का आनंद उठाते हुए और इसीलिए सरकार नाइट शेल्टर भी नहीं बनाती। ये बेचारे गरीब सारी सुविधाओं से तो दूर हैं ही, इन्हें प्रकृति के सानिध्य से भी दूर क्यों किया जाए। खैर, फुटपाथों पर गाड़ियां न चढ़ने का शुद्ध नुकसान यह हो रहा था कि लोग यह भूलने लगे थे कि शहर में सड़कों के साथ एक फुटपाथ भी होता है। इसी का नतीजा था कि लोग सड़कों की मांग तो बहुत करते हैं, पर फुटपाथ की मांग नहीं करते। फिर एक नुकसान यह भी हो रहा था कि लोग फुटपाथों पर गरीबों के कुचले जाने जैसी खबरें पढ़ने से वंचित हो रहे थे। एक अंदेशायह भी था कि कहीं देश को यह गुमान तो नहीं होने लगा था कि हम सचमुच अमेरिका बन गए हैं। सरकार खुश थी कि चलो देश को अमेरिका बनाने की इतने दिन से चली आती हमारी कोशिश आखिर सफल हुई। पर जी, गाड़ियां तो फिर से फुटपाथ पर चढ़ने लगीं। बहुत दिन से नहीं चढ़ रही थी। लग रहा था जैसे यह ट्रेंड ही खत्म हो गया है। बहुत दिन से तो फुटपाथों पर गाड़ियां चढ़ने के मुकदमे ही चल रहे थे। एकदम हाईप्रोफाइल। वैसे भी फुटपाथ पर गाड़ी आम आदमी थोड़े ही चला सकता है। आम आदमी तो फुटपाथ पर खुद ही नहीं चल सकता है। क्योंकि हो सकता है, वहां कोई दुकान लगी हो, किसी ने उस पर कब्जा कर लिया हो, उसे घेर लिया हो। फुटपाथ पर चलने के लिए वैसे भी फुटपाथ को होना जरूरी होता है, जो लगता है अब सरकार की प्राथमिकता में नहीं होता। इसीलिए तो आजकल फुटपाथ बनने ही बंद हो गए हैं। और क्यों बनाए! अमीरजादों के एडवेंचर के लिए या फिर बेघरों के सोने के लिए! सरकार दोनों के खिलाफ है। एक्सप्रेस वेज व चमचमाते फ्लाईओवर के साथ फुटपाथ की क्या जरूरत है। लोग गाड़ियों से चलें, पैदल चलने की क्या जरूरत? फुटपाथ बनाने का नुकसान यह है कि एक्सीडेंट होते हैं और सरकार के लिए स्थिति असहज हो जाती है। खैर जी, सारे विकास के बाद जैसे गरीबी नहीं मिटती, वैसे ही चमचमाते एक्सप्रेस वेज और फ्लाईओवरों के बावजूद कुछ फुटपाथ अब भी बचे हुए हैं और उन पर गाड़ियां फिर चढ़ने लगी हैं। लगता है रास्ता फिर डाइवर्ट हो गया है। दिल्ली में हाल में तीन बार गाड़ियां फुटपाथ पर चढ़ चुकीं और कई लोगों को कुचल चुकीं। लगता है कि अच्छे दिन तो जब आएंगे तब आएंगे, पर फुटपाथ पर गाड़ियां चढ़ाने के दिन फिर आ गए हैं। पर इस बार प्रोफाइल थोड़ा बदला हुआ है। जरूरी नहीं कि फुटपाथ पर चढ़नेवाली गाड़ियां चमचमाती, विदेशी, महंगी मर्सिडीज, ऑडी, बीएमडब्लू वगैरह ही हों। और यह भी जरूरी नहीं कि चलानेवाले अमीरजादे ही हों। मौका आखिर सबको मिलना चाहिए। फिर चाहे वह मौका गरीबों को कुचलने का ही क्यों ना हो

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