केंद्र में आता हाशिये का एक मुद्दा

सार्वजनिक स्थानों पर महिला शौचालय एक अत्यंत उपेक्षित मुद्दा रहा है। इस मुद्दे पर खुलकर बात करना तथा इस कमी को सार्वजनिक मंचों पर उठाना महिलाओं तथा महिला प्रतिनिधियों के लिए भी संकोच का विषय रहा है, लेकिन हाल के वर्षो में यह चुप्पी टूटी है। मीडिया ने भी इस मुद्दे को विशेष रूप से महत्व दिया और इस सवाल को गंभीरता से उठाया। उदाहरण के तौर पर दिल्ली में ही राजौरी गार्डेन बाजार में महिला टॉयलेट के नहीं होने को अच्छा-खासा कवरेज दिया गया। दिल्ली के राजौरी गार्डेन बाजार में 600 दुकानें है, लेकिन एक भी महिला टॉयलेट नहीं है, जबकि एमसीडी ने पुरुषों के लिए चार टॉयलेट बनाए हंै। इस हकीकत से शायद ही कोई अनभिज्ञ हो कि पुरुष जरूरत पड़ने पर सडक के किनारे के स्थान को भी टॉयलेट के रूप में इस्तेमाल कर लेते हैं फिर भी एमसीडी को उनकी चिंता है, लेकिन जिनके लिए बंद जगह जरूरी है उनके लिए कोई व्यवस्था नहीं की गई। यहां महिलाएं सिर्फ खरीदारी करने नहीं आती हैं, बल्कि दुकानों पर काम भी करती हंै। सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि दस-बारह घंटे काम के समय में उन्हें कितनी मुसीबत का सामना करना पड़ता होगा। राजौरी गार्डेन बाजार एसोसिएशन के प्रधान का कहना है कि महिलाओं की परेशानी को देखते हुए एसोसिएशन ने एक टॉयलेट बनवाया था, लेकिन एमसीडी से कोई मदद नहीं मिलने पर उसे बंद करना पड़ा। दूसरे यहां के दुकानदार भी देखभाल के लिए तैयार नहीं थे। यह टॉयलेट नशेडि़यों का अड्डा बन गया था जिस कारण महिलाएं वहां जाने से डरती थीं। एक दुकानदार महिला ने बताया कि वह पास बने एक मंदिर के टॉयलेट में जाती थी, लेकिन मंदिरवालों ने भी टॉयलेट के इस्तेमाल पर रोक लगा दी। अब महिलाएं नजदीक के एक गुरुद्वारे में जाती हैं, लेकिन हो सकता है कि कभी वहां भी दरवाजे बंद हो जाएं। सवाल है क्सा एमसीडी के अनुसार सभी सार्वजनिक जगहें सिर्फ पुरुषों के लिए ही हैं। अध्ययन बताते हैं कि महिलाओं को निवृत्त होने में अधिक समय लगता है। इसी वजह से कई पश्चिमी देशों में इसके लिए विशेष नियम बनाए गए हैं। अमेरिका के न्यूयार्क और दूसरे तमाम शहरों की नगर पालिकाओं ने बाकायदा यह नियम बनाया है कि नवनिर्मित किसी भी इमारत में पुरुष तथा स्ति्रयों के लिए बनने वाले टॉयलेट का अनुपात 1:2 रहेगा। न्यूयॉर्क शहर के कारपोरेशन ने शौचालय के मसले पर बाकायदा रेस्टरूम इक्विटी बिल पास किया जिसमें नियम बताया गया है कि सार्वजनिक स्थानों पर पुरुषों एवं महिलाओं के लिए बनने वाले शौचालयों में 1:2 का अनुपात होगा अर्थात पुरुषों के लिए अगर एक शौचालय बनेगा तो महिलाओं के लिए दो शौचालय बनेंगे। काउंसिल ने इस संबंध में समिति के सामने पेश किए अध्ययन पर सहानुभूतिपूर्वक विचार किया कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं को निवृत्त होने में अधिक समय लगता है। दिलचस्प बात है कि अपर्याप्त टॉयलेट सुविधाओं को यौन उत्पीड़न का प्रकार मानने के बारे में दायर एक जनहित याचिका के बाद यह मसला चर्चा में आया था। जहां तक भारत की बात है तो यह अनुपात 1:1 होने में भी कई दशक बीत जाएंगे। सार्वजनिक स्थानों पर शौचालयों की अनुपस्थिति को स्कूलों के स्तर पर भी देखा जा सकता है। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एजूकेशन प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन यानी नीपा के एक अध्ययन के मुताबिक देशभर मे सिर्फ 32 प्रतिशत स्कूलों में ही लड़कियों के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था है जबकि ग्रामीण इलाकों में इसकी संख्या महज 29.41 प्रतिशत है। स्कूलों में 40 बच्चों पर एक शौचालय का नियम है तथा बालिकाओं के लिए 25 पर एक शौचालय सुझाया दिया गया है, लेकिन यह सब कागज पर ही दिखता है। सामान्य रूप में देखने पर भी यही बात सामने आती है कि दिल्ली के अधिकतर सरकारी स्कूलों में एक या दो शौचालय ही हंै। उसमें भी शायद ही कोई साफ-सुथरा तथा अच्छी हालत में हैं। बड़ी होती उम्र में बालिकाएं अपने मासिक धर्म के समय में शौचालय न होने के कारण अथवा वहां पानी का इंतजाम न रहने के कारण स्कूल से अनुपस्थित होने के लिए मजबूर होती हैं। इस बारे में स्वास्थ्य की मामूली जानकारी रखने वाला भी बता सकता है कि गंदगी के कारण औरतें जल्दी यूरिनरी ट्रॅक इन्फेक्शन यानी मूत्र संक्रमण की शिकार हो जाती हैं। दिल्ली की पुनर्वास बस्तियों में किशोरियों के साथ की गई कई कार्यशालाओं के दौरान यही बात सुनने को मिली कि किस तरह शौचालयों की कमी उनकी बच्चियों के शिक्षा को प्रभावित करता है। यह विचार करने की बात है सड़कों पर या सार्वजनिक स्थलों पर महिलाओं की इस जरूरत पर आखिर नियोजनकर्ताओं का ध्यान क्यों नहीं जाता। क्या उन्होंने यह मान लिया है कि सार्वजनिक जगहों पर जाने के लिए महिलाएं वास्तव में हकदार नहीं हैं। पितृसत्तात्मक मूल्य वाले समाज में इनके लिए स्ति्रयों को नियंत्रित करने हेतु यह एक मजबूत हथियार लगा जिसका उपयोग भी किया जा रहा है। यदि ऐसा नहीं होता तो स्ति्रयों की जरूरतों व समस्याओं को ध्यान में रखते हुए महिला शौचालय के लिए इस तरह आवाज बुलंद नहीं करनी पड़ती। अब जबकि महिलाएं हर क्षेत्र में उपस्थित हैं तो यह गलती सुधार लेनी चाहिए। स्वच्छ शौचालय की ख्वाहिश रखना क्या ऐसी ख्वाहिश है जिसे पूरा करना असंभव है? निश्चित ही यह हर व्यक्ति का बुनियादी अधिकार होना चाहिए, क्योंकि यह एक प्राकृतिक जरूरत है। महिला टॉयलेट के मुद्दे की गंभीरता का थोड़ा अहसास पार्षदों को शायद होने लगा है तभी इस बार के एमसीडी चुनावों में प्रत्याशियों ने अपने वायदों में कई जगह महिलाओं के लिए टॉयलेट बनवाने की बात भी कही है। वे इस पर कितना गंभीर हैं यह तो आने वाला समय ही बताएगा। न सिर्फ टॉयलेट का नहीं होना एक मुद्दा है, बल्कि थोड़ा बहुत जहां है वहां भी यह बंद पड़ा रहता है। इसका अंदाजा तमाम बस स्टैंड के पास बने टॉयलेट का देखकर लगाया जा सकता है। जहां लेडीज टॉयलेट हैं वहां भी ताला बंद रहता है। यही स्थिति दिल्ली में एमसीडी के टॉयलेट का है जिसे कोई भी देख सकता है। यद्यपि एनडीएमसी तथा सुलभ शौचालय ने इस कमी की थोड़ी भरपाई की है, लेकिन एमसीडी ने अपनी जिम्मेदारी क्यों नहीं निभाई? हाल के संपन्न चुनावों में अब महिला पार्षदों की संख्या आधी हो गई है। वे इस मुद्दे को कितनी प्राथमिकता देती हंै, इसका भी कुछ ही महीनों में अंदाजा लग जाएगा। इसके अलावा एनडीएमसी तथा सुलभ इंटरनेशनल के संचालक सुविधा शुल्क की वसूली में महिलाओं के साथ भेदभाव करते हंै। पुरुषों से जहां एक रुपये लिए जाते हैं, वहीं महिलाओं से दो और तीन रुपये तक लिए जाते हंै। वजह पूछने पर बताते हैं कि उनका टॉयलेट बंद होता है, जबकि पुरुषों का खुला होता है, लेकिन यह तो कोई कारण नहीं हुआ। जब दोनों एक प्रकार की जरूरत पूरी कर रहे हैं तो इस प्राकृतिक भिन्नता का खामियाजा महिलाएं क्यों उठाएं? इनके संचालकों की जिम्मेदारी है कि वे ठेकेदारों को इस बारे में साफ निर्देश दें।

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