मीडिया और साहित्य का टूटता रिश्ता

मीडिया और साहित्य का टूटता रिश्ता साहित्य और पत्रकारिता के बीच एक अटूट रिश्ता रहा है। एक जमाना वह था जब इन दोनों को एक-दूसरे का पर्याय समझा जाता था। ज्यादातर पत्रकार साहित्यकार थे और ज्यादातर साहित्यकार पत्रकार। पत्रकारिता में प्रवेश की पहली शर्त ही यह हुआ करती थी कि उसकी देहरी में कदम रखने वाले व्यक्ति का रुझान साहित्य की ओर हो, लेकिन पिछले दो दशकों से इस रिश्ते में एक दरार आ गई है जो लगातार चौड़ी हो रही है। इसलिए आज की पत्रकारिता पर यह आरोप लग रहा है कि वह साहित्य की उपेक्षा कर रही है। जब उसे साहित्य की जरूरत होती है, उसका खूब इस्तेमाल करती है, लेकिन जब उसका काम निकल जाता है तब साहित्य की ओर मुडकर भी नहीं देखती। पत्रकारिता पर यह भी आरोप है कि उसका स्वरूप पहले की तरह स्पष्ट नहीं रह गया है। उसके मकसद को लेकर सवाल खड़े होने लगे हैं। उसमें अनेक स्तरों पर बिखराव दिख रहा है तो कई स्तरों पर अराजकता भी लक्षित हो रही है। सवाल उत्पन्न होता है कि ये आरोप कहां तक सही हैं और यदि पत्रकारिता के पास उनका कोई जवाब है तो वह क्या है? इसकी सबसे बड़ी वजह शायद यह है कि हाल के वर्षो में मीडिया का अभूतपूर्व विस्तार हुआ है। इसमें कोई दो राय नहीं कि राष्ट्रीय एजेंडा निर्धारित करने में आज मीडिया की भूमिका कहीं बढ़ गई है। आज वह केवल एक मिशन नहीं रह गया है, वह एक बड़े प्रोफेशन, बल्कि उद्योग में तब्दील हो चुका है। फिलहाल वह 10.3 अरब डॉलर का उद्योग है तो 2015 में वह 25 अरब डालर यानी सवा लाख करोड़ से अधिक का हो जाएगा। हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में 600 से अधिक टीवी चैनल, 10 करोड़ पे-चैनल देखने वाले परिवार, 70,000 अखबार हैं। यहां हर साल ।,000 से अधिक फिल्में बनती हैं। जाहिर है, इतने बड़े क्षेत्र को संभालना इतना आसान नहीं रह गया है। दुर्भाग्य यह है कि इसके लिए कोई सुविचारित नीति भी नहीं है। आजादी से पहले हिंदी पत्रकारिता के तीन चेहरे थे। पहला चेहरा था-आजादी की लड़ाई को समर्पित पत्रकारिता, दूसरा चेहरा था साहित्यिक उत्थान को समर्पित पत्रकारिता का और तीसरा चेहरा समाज सुधार करने वाली पत्रकारिता का था। कहना न होगा कि इन तीनों को आजादी का महाभाव जोड़ता था। इसलिए साहित्यिक पत्रकारिता भी यदि राजनीतिक विचारों से ओतप्रोत थी तो राजनीतिक पत्रकारिता में भी साहित्य की अंत: सलिला बहा करती थी।

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