किताबी ज्ञान में गुम होती मानवीय संवेदना

किताबी ज्ञान में गुम होती  आज शिक्षा की सबसे बड़ी चुनौती है, उसका जीवनोन्मुखी न होकर परीक्षोन्मुखी होना। सभी का सारा जोर परीक्षा पास करने या परीक्षा में अधिकाधिक अंक प्राप्त करने में है। शिक्षक शिक्षण इस तरीके से करते हैं, जिससे बच्चे परीक्षा में अधिक से अधिक अंक प्राप्त कर सकें। यही चाह अभिभावकों की भी रहती है। बच्चे तो फिर बच्चे हैं, अध्यापकों और अभिभावकों की महत्वाकांक्षाओं के हाथों कैद। परीक्षा ने बच्चों को महज किताबी कीड़े बना दिया है। जीवन के लिए शिक्षा एक मुहावरा मात्र बन कर रह गया है। ज्ञान की दो दुनिया बना दी गई हैं। एक, स्कूली ज्ञान और दूसरा बाहरी जीवन का ज्ञान। ऐसा वातावरण तैयार कर दिया गया है, जैसे कि स्कूल का ज्ञान बाहरी जीवन के ज्ञान से श्रेष्ठ और अलग है। स्कूली ज्ञान से ही जीवन की सफलता-असफलता निर्धारित होती है तथा स्कूली ज्ञान परीक्षा से नियंत्रित है। बच्चों के पास खेलने का समय ही नहीं है। उनकी जिंदगी तो यूनिट टेस्ट, वार्षिक, बोर्ड परीक्षा और अन्य अनगिनत प्रतियोगी परीक्षाओं से नियंत्रित रहती है। ऐसा प्रतीत होता है, जैसे जीवन प्रतियोगिता के लिए ही बना है। बस दौड़ते रहे हो कहीं कोई दूसरा आपसे आगे नहीं निकल जाए। साथ-साथ आगे बढ़ने की तो कहीं कोई बात ही नहीं। बच्चे का परीक्षाओं में प्रदर्शन मां-बाप से मिलने वाले प्यार की कसौटी बन गया है। परीक्षा का इतना महत्वपूर्ण होना शिक्षा का नौकरी के हित होने से जुड़ा है। जहां से यह सोच विकसित हुई कि शिक्षा इसलिए प्राप्त की जाए ताकि पढ़-लिखकर आने वाले समय में अच्छी नौकरी मिल सके। वहीं से शिक्षा का उद्देश्य संकुचित हो गया। अच्छी नौकरी का मतलब भी ऐसी नौकरी से है, जिसमें वेतन ऊंचा हो और शारीरिक श्रम कम से कम। यह ठीक है कि शिक्षा रोजगार का जरिया बने, पर शिक्षा केवल रोजगार के लिए हो यह बात कुछ गले नहीं उतरती। आज बाजार अलग-अलग गुणवत्ता वाली शिक्षा को लेकर उपस्थित हो रहा है। कम पैसे वालों के लिए अलग शिक्षा है और अधिक पैसों वालों के लिए अलग तरह की। बाजार में बिक रही शिक्षा का मूल्यों से कुछ लेना-देना नहीं है। बाजार सोचने-समझने वाला संवेदनशील मानव नहीं चाहता। ऐसा मानव उसके किसी काम का नहीं। इसलिए आज की शिक्षा एक कुशल डॉक्टर, इंजीनियर, प्रबंधक या प्रशासक तो तैयार कर रही है, पर उसे एक संवेदनशील इंसान नहीं बना रही है।दया नहीं, समाज में सम्मान चाहिए कुछ साल पहले तक नागालैंड की अचुंग्ला भी उन मेधावी विद्यार्थियों में थी, जो कड़ी मेहनत के बाद डॉक्टरी की शिक्षा में प्रवेश पाते हैं। दिल में ऊंचे ख्वाब और डॉक्टर बन लोगों की सेवा करने के भाव से भरी थी अचुंग्ला। दिमागी बुखार (मेनिनजाइटिस) की गिरफ्त में आने से पहले वह भी समाज की मुख्यधारा से उसी तरह जुड़ी थी, जैसे हम सब आज जुड़े हैं। इस बीमारी की वजह से उसकी सुनने की शक्ति जाती रही और वह भी उन लोगों की श्रेणी में आ गई, जिन्हें हमारा समाज मूक-बधिर कहकर बेगाना बना देता है। यह कहानी सिर्फ अचुंग्ला की नहीं है। यह कहानी है देश के उन तमाम लोगों की, जो हमारे समाज में खुद को अलग-थलग महसूस करते हैं। आजादी के 60 साल बाद भी हम उनकी शिक्षा का पुख्ता प्रबंध नहीं कर पाए, वह आज भी हमसे मदद की उम्मीद रखते हैं। उन्हें शिक्षा और शिक्षक का महत्व पता है। हम बात कर रहे हैं मूक-बधिर बच्चों की। हमारे शिक्षा सिस्टम में मिडिल के बाद मूक-बधिर बच्चों के लिए न तो शिक्षा संस्थान मिलते हैं और न ही स्पेशल टीचर। इन लोगों को न तो आम लोगों के साथ कॉलेजों में पढ़ने-लिखने की सुविधा मिलती है और न ही इन्हें सामान्य जिंदगी नसीब हो पाती है, मगर निराशा के इस अंधकार में रोशनी की कुछ किरणें उजाला करने की कोशिश में लगी हैं। दिल्ली के अरुणा आसफ अली मार्ग स्थित ऑल इंडिया फेडरेशन ऑफ द डेफ ऐसी ही एक संस्था है। यह संस्था एक एनजीओ है और भारत सरकार इसे फंड भी देती है। संस्था में इन बच्चों को उनकी रुचि के मुताबिक कई ऐसी कलाएं सिखाई जाती हैं, जिनसे वे खुद पर निर्भर हो सकें। अचुंग्ला भी आज यहां फोटोग्राफी सीख रही है और अपने टूटे हुए मनोबल को वापस लाने की कोशिश कर रही है, मगर अलग होने का दर्द उसकी आंखों में साफ दिखता है। यहां जो बच्चे आते हैं, उनके परिवार वाले उन्हें बोझ समझते हैं और बस पैसे देकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। बसों में या अन्य जगहों पर लोग इन्हें ऐसे देखते हैं, मानो ये किसी और दुनिया से आए हों। क्या हमारी संवेदना इस हद तक मर चुकी है कि हम उन लोगों को अपने साथ भी नहीं खड़ा कर सकते जो अपने हर पल में संघर्ष की एक मिसाल कायम करते हैं? क्या इंसानियत और पैसे तराजू पर बराबर हो चुके हैं? अगर नहीं, तो अगली बार जब अचुंग्ला जैसे लोगों से मिलें तो उन्हें दया नहीं सम्मान की दृष्टि से देखें।``

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