बड़े-बड़े देशों में छोटी-छोटी बातें होती रहती हैं

एक सिनेमाई वाक्य है- बड़े-बड़े देशों में छोटी-छोटी बातें होती रहती हैं। यह कहना मेरे लिए मुश्किल है कि यह मौलिक सोच है या हिंदी सिनेमा की परंपरा में प्रेरित है। यह वाक्य राजनीति के लिए इस्तेमाल हो सकता है। हमारे देश की राजनीति में इसका इस्तेमाल भी होता है। अंतर इतना है कि सिनेमा की समझ सत्ता बचाने की सोच में बदल कर हो जाता है कि बड़ी-बड़ी सत्ता के लिए समर्थन देने वाले छोटे-छोटे दलों का ख्याल रखा जाता है। सिनेमा में ऐसे विचार प्रेम करने के लिए और मारपीट करने के लिए एकता कपूर-विद्या बालन की जोड़ी वाली डर्टी पिक्चर के पहले हुआ करता था। डर्टी पिक्चर की सफलता के बाद सिनेमा का नारा वही हो गया है, जो इस पेशे का नीति वाक्य है कि एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट और एंटरटेनमेंट। जब एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट और एंटरटेनमेंट नहीं होता है तो कोई प्लेयर हो जाता है तो कोई एजेंट विनोद और होता है एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट और एंटरटेनमेंट तो कोई कहानी सफलता की कहानी बन जाती है। पानसिंह तोमर न न करते हुए हिट भी हो जाता है और सांसदों की आलोचना का बहाना भी। इसी से आप सिनेमा की ताकत समझ सकते हैं कि नैतिकता के खिलाडि़यों को भी अपनी बात कहने के लिए उसका सहारा लेना पड़ता है, लेकिन सिनेमा को अपने एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट और एंटरटेनमेंट के खेल में मुकाबला करना पड़ता है- अब तक एंटरटेनमेंट के बादशाह माने जाने वाले बिना खेल के खेल क्रिकेट से। दक्षिण भारत में सिनेमा के व्यक्ति भगवान हो जाते हैं। उनके मंदिर भी बन जाते हैं। हमारे यहां हिंदी पट्टी में तो शायद सिनेमा का कोई व्यक्ति भगवान नहीं बना है। हालांकि हम भी कम दीवाने नहीं हैं। शायद अमिताभ बच्चन का कोई मंदिर पश्चिम बंगाल में बनाया गया था, लेकिन हम सिनेमा के किसी व्यक्ति को भगवान नहीं कहते। बहुत हुआ तो अमिताभ बच्चन को बिग-बी कह डालते हैं और शाहरुख खान को किंग खान। यह कहना भी या तो फिल्मी पत्रकारिता या विज्ञापन का काम करने वालों की ही नारेबाजी या लफ्फाजी होती है। आखिर विज्ञापन एजेंसियों ने ही अमिताभ बच्चन को सदी का यानी बीसवीं सदी का महानायक बना दिया है, लेकिन क्रिकेट के एक खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर को विज्ञापन एजेंसियों से ज्यादा क्रिकेट के कारोबारियों ने भगवान बना दिया। फिर हमने भी उन्हें क्रिकेट का भगवान मान लिया।

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