पोर्न दा मामला


अब उनकी पार्टी के चाल, चरित्र और चेहरा का क्या कीजिएगा सब कुछ तो पोर्न केरास्ते जनता केसामने आ गया। न किसी को मुँह दिखाने केलायक रहे न ज्ञान बाँटने के। पूरी दुनिया को राष्ट्रवाद का उपदेश देने वाली पार्टी केमंत्री-विधायक सदन में बैठकर पोर्न का आनंद लें, अब प्यारे तुम्हीं कहो कि इसे क्या कहा और समझा जाए! क्या कंट्रोल नहीं होता या फिर दिल का मामला कहकर टाल दिया जाए! लेकिन, ऐसा भी नहीं कर सकते क्योंकि मामला सदन में बैठकर तुच्छ वीडियो देखने का जो बनता है। साथ ही यह हरकत साफ कर देती है कि हमारे जनप्रतिनिधियों के पास विधायिका के सदनों में करने को कोई काम नहीं होता। जनता की समस्या तो ये क्या ही सुलझाएँगे, पहले अपनी इच्छाओं की तो पूर्ति कर लें। वैसे विधायक इत्ते भी लल्लू नहीं हैं कि उन्हें मालूम ही न हो कि सदन में बैठकर वे आनंद किस चीज का ले रहे हैं! तो क्या मान लें कि काम भावना बड़ी चीज है।

काम से जुड़ी भावना होती ही ऐसी है कि कंट्रोल नहीं करने देती। बंदा किसी न किसी चित्र-चलचित्र पर फिसल ही जाता है। यूँ भी फिसलना अब कोई बहुत बड़ा मुद्दा नहीं रह गया है। क्या राजनीति, क्या समाज, क्या साहित्य क्या फिल्मी संसार कोई न कोई किसी न किसी बात पर फिसल ही रहा है। किसी की जुबान फिसल जाती है, किसी का दिल फिसल जाता है, किसी की भावनाएँ फिसल जाती हैं। पकड़े गए विधायकजी तो यह कहते पाए हैं कि तुच्छ वीडियो क्लिप तो बाईचांस देख ली थी, इसे देखने का ऐसा कोई इरादा नहीं था। प्यारे, अब हमें क्या मालूम कि विधायक जी का इरादा क्या था? हो सकता है कि उनका इरादा विक्रम-बेताल देखने का रहा हो, गलती से टैबलेट पर तुच्छ वीडियो चल गया हो। ऐसी चीजें देखे बिना आँखें भी कहाँ चैन से रहने देती हैं! गलती आँखों की, फँस बेचारे विधायकजी गए। लेकिन मुझे यह बात समझ नहीं आती कि पोर्न देखने से चरित्र कैसे और क्यों दागदार हो जाता है? जबकि विज्ञापन से लेकर सामान्य ज्ञान तक में यही कहा-बताया जाता है कि दाग अच्छे हैं। दागों का अच्छा होना प्रत्येक दोष व अश्लीलता को छिपा लेता है। ऐसे में विधायकजी के दागों को सरेआम डिसप्ले करना उचित नहीं है।

शुद्ध राष्ट्रवादी विचारधारा से निर्मित चाल, चरित्र और चेहरे वाली पार्टी पसोपेश में है कि क्या करे और विधायकजी की तुच्छ हरकत पर जनता और मीडिया को कैसे जवाब दे। दरअसल, मामला ही कुछ ऐसा फँस गया है कि जवाब जुबान तक आते-आते हकलाहट में तब्दील हो जाता है। हलक में पेंच ऐसा फँसा है कि न निगलते बन रहा है न उगलते। जगहँसाई हो रही है, सो अलग। ऐसे में अगर संघ ने आँखें तरेर लीं तो प्यारे डिरेलमेंट हुआ ही समझें। चिंतित हूँ कि पोर्नगेट कहीं पार्टी को गेटआउट न कर दे। बहरहाल, देखते हैं आगे क्या होता है...


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