बुजुर्गों के हितों की सुरक्षा किसका दायित्व?

बदलते हुए सामाजिक परिवेश एवं पारिवारिक संरचना ने वृद्धों के जीवन को कठिन बना दिया है। शहरी क्षेत्रों में ६४ फीसद बुजुर्ग महिलाएँ और ४६ फीसद बुजुर्ग पुऱष अपनी जरूरतों के लिए पूर्ण रूप से दूसरों पर निर्भर हैं।




हमारा देश इस समय स्वयं को युवाओं का देश मान उत्साहित है क्योंकि युवा आबादी ऊँचे विकास का मार्ग प्रशस्त करती है लेकिन इससे परे एक सत्य और भी है कि जल्द ही हमारा देश दुनिया में बुजुर्ग नागरिकों की आबादी वाला दूसरा सबसे बड़ा देश होगा। बदलते हुए सामाजिक परिवेश एवं पारिवारिक संरचना ने वृद्धों के जीवन को कठिन बना दिया है। आँकड़े बताते हैं कि शहरी क्षेत्रों में ६४ प्रतिशत बुजुर्ग महिलाएँ और ४६ प्रतिशत बुजुर्ग पुऱष अपनी मूलभूत आवश्यकताओं के लिए पूर्ण रूप से दूसरों पर निर्भर हैं। आर्थिक सुदृढ़ता एवं क्रियाशीलता वृद्धावस्था को खुशहाल करने में कारगर सिद्ध हो सकती है पर भारत में मात्र ११ प्रतिशत आबादी के पास सेवानिवृत्ति के बाद आय के स्रोत उपलब्ध हैं। हालात एक ओर जहाँ आर्थिक-स्तर पर चिंताजनक है वहीं देश के बुजुर्गों का स्वास्थ्य-स्तर बेहद खराब है, देश में मौजूदा करीब १० करोड़ बुजुर्गों में से हर चौथा बुजुर्ग डिप्रेशन या अवसाद से ग्रस्त है। "एल्डर एब्यूज इन इंडिया" रिपोर्ट में भारत में बुजुर्गों की स्थिति पर चर्चा करते हुए स्पष्ट किया गया कि अपमान, उपेक्षा, दुर्व्यवहार और प्रताड़ना की वजह से अधिकतर वरिष्ठ नागरिक बुढ़ापे को एक बीमारी मानने लगे हैं। वे बुजुर्ग जिनके अनुभव हमारे सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास के लिए नींव के पत्थर की भाँति हैं उनके अनुभवों को हमने स्क्रैप मानकर नकार दिया है जिसका परिणाम यह है कि बुजुर्ग आबादी हमारी प्राथमिकताओं में ज्यादा ऊपर नहीं है। केंद्र सरकार ने १९९९ में बुजुुर्गों के लिए पहला नीति दस्तावेज बनाया। लेकिन कुछेक साल बीतते-बीतते ही यह नाकाफी साबित हुई। २००७ में सरकार ने बुजुर्गों के लिए जरूरी उपायों पर सलाह देने के लिए फिर एक कमेटी बनाई, जिसने बीते वर्ष रिपोर्ट दी। संभवतः जल्द ही इसे नीति के रूप में स्वीकार किया जाएगा। २००७ में ही केंद्र सरकार द्वारा "माता-पिता और वरिष्ठ नागरिक भरण-पोषण कल्याण विधेयक" पारित किया गया जिसमें अपने वृद्ध माँ-पिता की उपेक्षा करने वालों को तीन महीने की कैद और ५००० रुपए जुर्माने की व्यवस्था है। पर क्या यह संभव है कि उत्तरदायित्वविहीन बच्चों के विरुद्ध न्यायालय के समछ उनके अभिभावक खड़े हो पाएँगे? दरअसल, जिस भारतीय परिवेश में अपनी संतान को बुढ़ापे की लाठी मानने की सोच आज भी अपनी जड़ें जमाए हुए है वहाँ अपनी संतान के विरुद्ध जाना मुश्किल है। सिमोन द बोउवा ने अपनी किताब "ला विगेस" में लिखा था- "जब वृद्धों की वही ख्वाहिशें, वही संवेदनाएँ और वही आवश्यकताएँ हैं, जो युवाओं की हैं तो क्यों दुनिया इन्हें नफरत की नजर से देखती है?" हमारे यहाँ अभी विकसित हो रहे बुनियादी ढाँचे में बुजुर्गों की सुविधा और जरूरतों का ध्यान रखा जाए और ऐसी नीतियों को निर्मित किया जाए जो वृद्धों के लिए जीवन को सहज कर सकें।`

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