मोबाइल जरूरी या शौचालय

केंद्रीय ग्रामीण विकास एवं पेयजल व स्वच्छता अभियान मंत्री जयराम रमेश की मानें तो महिलाओं की प्राथमिकता में अब मोबाइल फोन है, न कि शौचालय। जयराम रमेश ने यह बयान तब दिया, जब पिछले दिनों वह सहस्राब्दि विकास के लक्ष्यों का लेखा-जोखा प्रस्तुत कर रहे थे। विकास लक्ष्य 2011-12 की रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा कि भारत प्राथमिक वैश्विक शिक्षा का लक्ष्य हासिल कर चुका है। स्वच्छ पेयजल से वंचित आबादी की संख्या भी कम हुई है। जयराम रमेश ने स्वीकार किया कि भूख से होने वाली मौतों की संख्या और शिशु एवं मातृत्व मृत्यु दर अब भी काफी अधिक है। अपनी उपलब्धियों के आंकड़े प्रस्तुत करते हुए वह भारत की महिलाओं विशेषकर ग्रामीण महिलाओं के मन के अंदर भी झांक गए। एक सफल मनौवैज्ञानिक की भूमिका में उन्होंने तपाक से महिलाओं की प्राथमिकता बता दी। मुझे भी ग्रामीण महिलाओं से रूबरू होने का अवसर मिलता रहता है या यों कहूं कि ऐसे अवसर की ताक में रहती हूं। कारण यह है कि उनसे बातचीत करके या उनके रहन-सहन का स्तर देखकर उनके विकास का आकलन होता है। मंत्री महोदय का वक्तव्य सुनकर मुझे छह दशक पहले का अपना गांव स्मरण हो आया। हमारा घर गांव में ही था और मेरे पिताजी एक शिक्षक थे। बाद में गांव से छह मील दूर शहर में जिला बोर्ड के कार्यालय में कार्यरत हुए। सरकारी पद पर शिक्षक की मानसिकता जिसे एक समाज सेवक की मानसिकता भी कहा जा सकता है, उन पर सदैव हावी रही। उन्होंने अपनी बैलगाड़ी शहर भेजकर बोर करने वाली मशीन मंगवाई थी। उससे छह-सात फीट गहरा गड्ढा करके घर के पीछे महिला और घर के आगे थोड़ी दूर पर खेत में पुरुष शौचालय बनवाया था। उसे देखने के लिए गांव के स्त्री-पुरुष का तांता लग गया। शौचालय के लिए खेत में जाने के अभ्यासी स्त्री-पुरुषों को बड़ा आश्चर्य हुआ। पर किसी ने अपने घर में शौचालय बनाने के लिए वह मशीन उधार नहीं मांगी। पिताजी का प्रयास वहीं तक नहीं थमा। कुछ दिनों बाद उन्होंने गांव के पुरुषों को इकट्ठा किया। पूछा आप लोग अच्छा भोजन करते हैं। साफ-सुथरे कपड़े पहनकर हाट-बाजार जाते हैं। अपनी समृद्धि के दिखावा के लिए कई प्रयास करते हैं पर आप लोगों का ध्यान अपने घर की महिलाओं के स्वास्थ्य की ओर क्यों नहीं जाता? वह देर रात्रि या सबेरे सूरज निकलने से पूर्व ही शौच के लिए खेतों में जाती हैं। दिन में शौच की जरूरत महसूस होने पर भी उन्हें रोके रहना पड़ता है। वे तरह-तरह की बीमारियों से ग्रसित होती हैं। उनके इलाज के लिए आप डॉक्टर भी नहीं बुलाते। महिलाएं दिन-रात आपके सुख के लिए खटती हैं, लेकिन आप उनके स्वास्थ्य का भी नहीं सोचते। किसी ने कोई जवाब नहीं दिया। किसी ने मशीन मंगवाने का आग्रह भी नहीं किया। उन्होंने पुन: अपने खर्चे से शहर से मशीन मंगवाई। बहुत समझाने-बुझाने पर दो-चार घरों में ही शौचालय बनवा पाए, लेकिन अपने इलाके का वह पहला गांव था जहां दस-बीस घरों में ही सही महिलाओं के लिए शौचालय बनाए गए थे। आज उसी गांव में पक्के मकान भी हैं और महिला-पुरुष शौचालय भी। मेरे भाई की शादी के लिए (1950 में) शहर से रिश्ता लेकर एक बेटी वाले आए थे। वे मेहमान थे, इसलिए दरवाजे पर ही बिठाए गए। उनके साथ एक सेवक भी आया था। वह हमारे घर के पीछे चला गया। पूछने पर बताया कि गलती से उधर गया। संयोग से भैया का विवाह उसी लड़की से हुआ। पता चला कि वह सेवक घर के पीछे इसलिए गया था कि महिलाओं के लिए शौचालय है कि नहीं, यह देख सके। किंचित शौचालय नहीं होने पर शहर से आए वे लड़की वाले अपनी बेटी को उस परिवार की बहू नहीं बनाते। आज भी गांवों में रिश्ता लेकर जाने वाला बेटी का पिता अन्य सुविधाओं में महिला के लिए शौचालय की सुविधा भी खोजता है। अखबारों में छपी खबरों के अनुसार कुछ दिन पहले मध्य प्रदेश में एक आदिवासी महिला शादी के सिर्फ दो दिनों बाद ही पति को छोड़कर मायके चली गई। इसकी वजह यह थी कि उसकी ससुराल में शौचालय नहीं था। यह सच है कि सरकारी घोषणाओं और योजनाओं की रपट के बावजूद गांवों में तो क्या, शहरों तक में भी महिलाओं के लिए शौचालयों की उपयुक्त व्यवस्था नहीं हो सकी है। इसमें भी दो राय नहीं कि गांव की महिलाएं गंदे शौचालयों में जाने की जगह खेतों में ही जाना पसंद करती हैं। हमारी पंचवर्षीय योजनाओं में महिला शौचालय बनाने का भी प्रस्ताव रहता है। भारत सरकार की निर्मल गांव योजना संपूर्ण स्वच्छता अभियान का ही हिस्सा है। वर्ष 1986 में ही गांवों में शौचालय बनाने का सरकार ने निश्चय किया था। 1999 में इसे संपूर्ण स्वच्छता अभियान के रूप में मनाया गया। 1999 तक गांवों में 35 प्रतिशत ही स्वच्छता थी और 45 प्रतिशत प्राथमिक विद्यालय थे। 80 प्रतिशत बीमारियों का कारण शौचालय के अभाव हैं। अनुमान लगाया गया है कि 36 प्रतिशत बीमारियां मात्र शौचालय से नियंत्रित होंगी और 35 प्रतिशत साबुन से हाथ धोने से। इससे 18 करोड़ आदमी कार्य दिवस का नुकसान और 1200 करोड़ रुपए की आर्थिक क्षति होती है। संपूर्ण स्वच्छता अभियान केंद्र सरकार के ग्रामीण विकास और पेयजल एवं स्वच्छता अभियान मंत्रालय के द्वारा चलाया जा रहा है। केंद्र सरकार द्वारा इस अभियान को बीस वर्षो से चलाया जा रहा है। जैसा कि कार्यक्रम के नाम से ही साफ है कि यह एक अभियान है। सब्सिडी के द्वारा ग्रामीण लोगों को इस प्रकार से जागरूक करना है जिससे वे स्वयं स्वच्छता के महत्व को समझें। स्वच्छता के अभाव में होने वाली स्वास्थ्य की हानियों से अवगत हों। स्वच्छता के लिए स्त्री-पुरुष स्वयं आगे बढ़कर सरकार से सहायता मांगे। सामूहिक रूप से भी गांव वाले अपने गांव को पूर्ण रूप से स्वच्छ बनाने की इच्छा प्रगट करें। संपूर्ण स्वच्छता अभियान द्वारा किसी गांव में छह प्रकार के कार्य अपेक्षित होते हैं-मलमूत्र का निकास, गंदे पानी का निकास, कूड़े-कचरे को साफ करना, घर में और बाहर स्वच्छता, व्यक्तिगत स्वच्छता, स्कूल और आंगनवाड़ी में स्वच्छता के साथ सामुदायिक भवन की स्वच्छता। हर गांव में स्वच्छता समिति बनती है। पर सच तो यह है कि महिलाओं को भी अपने लिए शौचालय बनवाने के लिए आगे आना चाहिए। यदि वे स्वयं बढ़कर आगे नहीं आएंगी और शौचालय बनवाने की मांग नहीं करेंगी तो शौचालयों का वही हश्र होगा, जो कई गांवों में होता रहा है। स्वयंसेवी संगठनों द्वारा बनवाए गए शौचालयों में महिलाएं गोबर रखने लगीं या बकरियां बांधने लगीं और खुद खेतों में ही शौच के लिए जाती रहीं। इसलिए इस कार्यक्रम का नाम अभियान रखा गया है। अभियान के मर्म को न समझ पाने या लोगों के मन में परिवर्तन लाए बिना शौचालय बनाए तो जा रहे हैं, पर पूर्ण स्वच्छता

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