इस प्रयोगधर्मी समय में

भाइयों! यह प्रयोगों का समय है। तरह-तरह के प्रयोग हो रहे हैं कला, साहित्य, फैशन के क्षेत्र में। परंपरागत लोक कलाओं के साथ आधुनिक कला का तड़का लगा कर प्रस्तुत किया जा रहा है तो उधर सारंगी के साथ गिटार का फ्यूजन हो रहा है। इधर हाइकू के साथ त्रिपदी इठला रही है तो उधर टेस्ट मैच के साथ ट्वेंटी-२० का तालमेल। समाजवादियों के साथ कट्टरपंथी हँस रहे हैं तो क्षेत्रीय दलों के साथ नक्सलपंथी पींगे बढ़ा रहे हैं। जैसे फैशन में कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा मिल रहे हैं, वैसा ही घालमेल राजनीति में हो रहा है। दागी और बागी एक ही दल की शोभा बढ़ा रहे हैं। खांटी पार्टीनिष्ठ और अवसरवादी साथ-साथ प्रचार कर रहे हैं। लगता है, जीवन में प्रयोगों की बाढ़ सी आई हुई है। कान के ऊपर एक कुंडल लटका ले तो कांचा चीना हो जाता है और दो लटका ले तो अमेरिकन डूड।
जींस कूल्हा दर्शना हो गई है और साड़ी नाभि दर्शना। नीयत साफ हो या न हो, स्किन साफ करने पर पूरा जोर है। सारे जहां से अच्छा और वंदे मातरम्‌ गीत के तो इतने नवसंस्करण तैयार हो गए हैं कि कुछ दिनों में नई पीढ़ी मूल धुन भी नहीं पहचान पाएगी। हॉकी को प्रयोगों की बाढ़ ने कलात्मक कम प्रहारात्मक फुटबॉल अधिक बना दिया है। क्रिकेट तो वैसे ही पावर वालों का खेल था, पता नहीं उसमें पावर प्ले की जरूरत क्यों पड़ गई। पश्चिम को पावर से इतना मोह क्यों है समझ से परे है। पूर्व जहाँ निवृत्ति की बात करता है पश्चिम प्रवृत्ति के पीछे भूत सा भागता ही रहा है। लेकिन प्रयोगों की चाह हमारे यहाँ भी कम नहीं। अपराध करते-करते जब मन ऊब जाता है तो वे मन बहलाव के लिए राजनीति के नंदन कानन में चले आते हैं। प्रयोगवादी राजनेता उन्हें हाथोहाथ लेते हैं कि शायद पार्टी का भला हो जाए, देश का बेड़ा भले गर्क हो जाए। धर्म और राजनीति की जुगलबंदी तो इतिहास प्रसिद्ध है। जब-जब धर्म कमजोर हुआ उसने राजनीति का चाबुक थामा और जब राजनीति लड़खड़ाई उसने धर्म के दो घूँटों का पान कर साँस ली। लेकिन इधर कुछ नए प्रयोगों की लहर सी आई हुई है। सिनेमा अंडरवर्ल्ड से हाथ मिला रहा है और आतंकवादी, नक्सलवादी अवसरवादियों से। रियलटी शो प्रचार के अड्डे बन गए हैं और कुछ तथाकथित अखबार उद्योगजगत के पंफलेट मात्र।
खेलों में खेल भावना छोड़ कर सब बचा है जैसे कि राजनीति में सेवा छोड़ सब बचा है। लेकिन एक प्रयोगशील युग में यह सब तो होता ही है। पुराने किले ढहते हैं, नए घरौंदे बनते हैं। वर्चस्व टूटता है और नव कोंपल फूटती हैं। पगडंडियाँ मिटती हैं और फ्लाईओवर पसरते हैं। नाटक लुप्त होता है और आत्मकथाएँ फैलती हैं। कविता काँपती है और चुटकुले इठलाते हैं। धर्मनिरपेक्ष पार्टी मोदी की प्रशंसा में जुटी है और वामपंथी पूँजीवाद का पलक पाँवड़े बिछा के स्वागत कर रहे हैं। बूढ़े अपने नौनिहालों को उड़ना सिखा रहे हैं और उधर राजनीति में आंतरिक लोकतंत्र और शुचिता की बातें हो रही हैं। पता ही नहीं चल पाता कि अभी-अभी जो हाथ मिला रहा था वो रहजन था या रहबर। आमीन

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