संचार मंत्री कपिल सिब्बल की प्रीस्क्रीनिंग योजना फ्लॉप हो गई है, लेकिन केंद्र सरकार ने 900 करोड़ रुपये सेंटर फॉर कम्युनिकेशन सिक्योरिटी रिसर्च एंड मॉनीटरिंग के लिए आवंटित किए हैं। ऐसा इसलिए ताकि कानून लागू करने वाली एजेंसियों को खुली छूट मिल जाए मोबाइल और इंटरनेट पर हर समय नजर रखने के लिए। इस बारे में कपिल सिब्बल ने कुछ समय पहले कहा था कि इंटरनेट कंपनियों और सोशल मीडिया साइटों को चाहिए कि वह इंटरनेट पर प्रसारित होने वाले यूजर कंटेंट को प्रीस्क्रीन करें ताकि भड़काउ, आपत्तिजनक, अपमानजनक और उत्तेजक कंटेंट ऑनलाइन भेजे न जा सकें। इस विचार की चौतरफा आलोचना हुई थी और इंटरनेट कंपनियों व सोशल मीडिया साइटों ने प्रीस्क्रीन करने से इनकार कर दिया था। दरअसल ऐसा करना संभव नहीं है, क्योंकि आज इंटरनेट पर अनगिनत बैकडोर्स ओपनिंग मौजूद हैं जिनसे कोई भी कंटेंट किसी न किसी तरह से उपलब्ध कराया जा सकता है। इसलिए सोशल मीडिया कंटेंट को प्रीस्क्रीन करना लगभग असंभव है। यह अलग बात है कि जब भी किसी साइट के बारे में शिकायतें मिलती हैं कि वह ऐसा कंटेंट परोस रही है जिससे धर्मिक या जातिगत भावनाओं को ठेस पहुंचती है और उससे शांति व्यवस्था को खतरा हो सकता है तो इंटरनेट कंपनियां जांच के बाद शिकायत को सही पाने पर संबंधित साइट को स्वत: ही ब्लॉक कर देती हैं। बहुत सी साइटों को ब्लॉक कराने के लिए दुनिया भर की विभिन्न अदालतों में मुकदमें भी चल रहे हैं। कुछ लोगों का तो यह व्यवसाय ही बन गया है कि वह नेट पर अपने समुदाय से संबंधित आपत्तिजनक साइटों को तलाशें और उनके खिलाफ शिकायतें दर्ज कराकर ब्लॉक कराएं। पिछले साल अपै्रल में सरकार ने इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी, इंटरमीडियरीज गाइडलाइंस रूल्स-2011 का गठन किया जिनमें एक नियम यह था कि रिपोर्ट करने पर किसी भी आपत्तिजनक कंटेंट को 36 घंटे के भीतर इंटरनेट कंपनियों को हटाना होगा, भले ही वह कंटेंट खतरनाक श्रेणी में न हो, लेकिन किसी कंटेंट को पोस्ट होने से पहले ब्लॉक कराना या सिब्बल के शब्दों में प्रीस्क्रीन कराना मुमकिन नहीं है। दरअसल, ऐसा प्रयास करने के बाद भी संभव नहीं हो सकता। सबसे पहली बात तो यह है कि प्रीस्क्रीनिंग करने के लिए जो समय, कोशिश और मानव संसाधनों की आवश्यकता होगी वह कल्पना से बाहर है। अगर कुछ करके साधन जुटा भी लिए जाएं तो भी अन्य परेशानियां हैं। मसलन जब स्टीव जॉब्स का निधन हुआ तो अनेक भारतीय आइटी प्रोफेशनल्स उन्हें ऑनलाइन फॉलो नहीं कर सके, क्योंकि उनके सिस्टम ने शब्द जॉब्स को सेंसर किया हुआ था जिससे उन्हें सर्च करना कठिन हो गया। इसके अतिरिक्त ऐसे भी तरीके हैं जिनसे सेंसर किए गए शब्दों से बचा जा सकता है। सत्तर के दशक में जब अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट ने एंटीपोर्नोग्राफी फैसला सुनाया तो एडल्ट साइटों ने सेंसर किए गए शब्दों की जगह सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों के नाम रखकर साइटों को चलाना शुरू कर दिया। आज लगभग चार दशक बाद इंटरनेट टेक्नोलॉजी इतनी विकसित हो गई है कि आसानी से सेंसर किए गए शब्दों को बाइपास किया जा सकता है। हद तो यह है कि गोपनीय बातों को भी नेट के जरिए एक जगह से दूसरी जगह तक इतनी आसानी से पहुंचा दिया जाता है कि गुप्तचर एजेंसियों के लिए भी इन्हें पकड़ना बहुत कठिन होता है। ऐसे में कपिल सिब्बल का प्रीस्क्रीनिंग सुझाव पूर्णत: अर्थहीन व अव्यावहारिक था, लेकिन सरकार किसी न किसी तरह से मोबाइल व इंटरनेट के जरिए जो आप कम्युनिकेशन करते हैं उस पर अपनी पकड़ बनाना चाहती है। इसलिए योजना यह बनाई गई है कि अगले पांच साल के अंदर ऐसी व्यवस्था स्थापित कर दी जाए जिसके जरिए आप जो फोन कॉल्स करते हैं और इंटरनेट पर कंटेंट पोस्ट करते हैं उस पर सुरक्षा एजेंसियां कड़ी नजर रख सकें।। इसलिए सरकार ने 900 करोड़ रुपये सेंटर फॉर कम्युनिकेशन सिक्योरिटी रिसर्च एंड मॉनीटरिंग को गठित करने के लिए आवंटित किए हैं ताकि सुरक्षा एजेंसियां आसानी से कॉल्स इंटरसेप्ट कर सकें और विश्वव्यापी वेब को भी मॉनिटर कर सकें। सरकार की जो योजना है उसके तहत 800 करोड़ रुपये का निवेश सेंट्रलाइज्ड मॉनिटरिंग सिस्टम को स्थापित करने के लिए किया जाएगा ताकि सभी किस्म के कम्युनिकेशंस चाहे वह फोन हो या इंटरनेट, सब को इंटरसेप्ट किया जा सके। बाकी के 100 करोड़ रुपये से टेलीकॉम टेस्टिंग एंड सिक्योरिटी सर्टिफिकेशन सेंटर स्थापित किया जाएगा ताकि सभी किस्म के उपकरणों को टेस्ट किया जा सके। यह बातें टेलीकम्युनिकेशन विभाग की रिपोर्ट में कहीं गई है जिसे टेलीकॉम सेक्टर के वर्किग समूह ने 12वीं पंचवर्षीय योजना 2012-17 के लिए तैयार किया है। 11वीं पंचवर्षीय योजना में भी सुरक्षा एजेंसियों की मदद के लिए सेंट्रलाइज्ड मॉनिटरिंग सिस्टम की कल्पना की गई थी। सेंटर फॉर कम्युनिकेशन सिक्योरिटी रिसर्च एंड मोनिटरिंग को स्थापित करने की मंजूरी सुरक्षा कैबिनेट समिति ने पहले ही दी हुई है। इसमें जो 450 करोड़ रुपये की सरकारी फंडिंग अब हुई है उससे सीएमएस पर अच्छा खासा रिसर्च हो चुका है और उसके नतीजे आने शुरू हो गए हैं। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि अगले पांच वर्ष में इस सिस्टम को किस प्रकार अपग्रेड और मजबूत किया जाएगा। सेंट्रलाइज्ड मॉनिटरिंग के लिए ऐसी सुविधा विकसित की जाएगी जो देशभर के विभिन्न टेलीकॉम और ब्राडबैंड तकनीकों व सेवाओं को जोड़ेगी। इस पर 350 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। इस सिस्टम का विस्तार भी वैसे ही होता रहेगा जैसे-जैसे नेटवर्क फैलेगा और इस पर अनुमानित 150 करोड़ रुपये का खर्च आएगा। इस विशाल इंफ्रास्ट्रक्चर को मेंटेन और ऑपरेट करने के लिए 300 करोड़ रुपये अलग से रखे जाएंगे। फिलहाल फोन कॉल्स और इंटरनेट कंटेंट की मॉनिटरिंग मैनुअल की जाती है। ऐसा करने में अनेक जगहों से अनुमति लेनी पड़ती है। जो कंपनियां फोन और इंटरनेट सेवाएं प्रदान कर रही हैं, उनके कार्यस्थल पर जाकर और उनसे अनुमति लेकर ही मॉनिटरिंग हो पाती है, लेकिन एक बार जब यह प्रस्तावित व्यवस्था चालू हो जाएगी तो देश की सभी टेलीकॉम कंपनियां एक केंद्रीय निगरानी कक्ष से जुड़ी होंगी और फिर आसानी से किसी के भी फोन और इंटरनेट कंटेंट को सुना व देखा जा सकेगा। इस प्रकार सरकार हर किसी पर नजर रखेगी। रिपोर्ट में कहा गया है कि समाज विरोधी व राष्ट्र विरोधी तक कम्युनिकेशन सुविधाओं का दुरुपयोग अपनी साजिश को बताने, समन्वय करने और अपराध को अंजाम देने के लिए करते हैं। साथ ही वह नेटवर्क पर हमला करके गोपनीय व निजी जानकारी को भी हासिल कर लेते हैं। इस किस्म के जो खतरे हैं उनको रोकने के लिए यह योजना बनाई गई है, लेकिन इसकी कोई गारंटी नहीं है कि सरकार इसका दुरुपयोग राजनीतिक शत्रु पर नजर रखने के लिए नहीं करेगी।
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