सलमान रुशदी की भारत यात्रा पर जारी विवाद बेमतलब है। जिस तरह से कुछ सियासी दल इस प्रकरण को भुनाने में जुटे हैं, उसे देख यही कहा जा सकता है कि यह "सैटेनिक" पॉलिटिक्स के अलावा कुछ भी नहीं है।
२० से २४ जनवरी तक जयपुर में होने वाले साहित्य उत्सव (लिटरेरी फेस्टिवल) में विवादास्पद लेखक सलमान रुशदी के भाग लेने के मुद्दे पर आजकल वबाल बढ़ा हुआ है। देश के विभिन्ना मुस्लिम संगठन जहाँ रुशदी को कार्यक्रम में नहीं आने देना चाहते हैं, वहीं लखनऊ स्थित एक खास इस्लामी शिक्षण संस्थान दारुल उलूम फरंगी महल ने रुशदी के भारत आगमन के खिलाफ मुस्लिमों की नाराजगी को जायज बताया है। इस बाबत एक फतवा भी जारी हुआ है, जिसमें दारुल उलूम फरंगी महल के नाजिम मौलाना खालिद रशीद ने मुस्लिमों से रुशदी के खिलाफ जायज तरीके से प्रदर्शन करने को कहा है। अन्य मुस्लिम संगठन भी कहते हैं कि रुशदी नास्तिक है। उसे मार दिया जाना चाहिए। कहते हैं कि भारत में रुशदी के आने से यहाँ के करीब २२ करोड़ मुस्लिमों की भावनाएँ आहत होंगी। उधर, राजस्थान की कांग्रेस सरकार भी चाहती है कि रुशदी उत्सव में न पहुँचें। आयोजकों की ओर से जारी कार्यक्रम सूची में भी रुशदी का नाम नहीं है। इन सबके बीच विश्व हिन्दू परिषद (विहिप) का अपना अलग राग है। विहिप का मानना है कि रुशदी मामले में मुस्लिम कट्टरपंथियों की बात नहीं सुनी जानी चाहिए। वैसे भी भारत कोई इस्लामी राष्ट्र नहीं है। अब यदि यहाँ मुस्लिम संगठनों, मुस्लिमों, कांग्रेस और विहिप की प्रतिक्रियाओं की समीक्षा की जाए तो पता चलेगा कि सबने संतुलित बयान देने की कोशिश की है, बावजूद इसके सबकी मंशा स्पष्ट हो रही है। यह पता चल रहा है कि कौन क्या कहना चाहता है।
दरअसल, १९८८ में एक किताब आई थी "सैटेनिक वर्सेज" यानी "शैतान की आयतें", जो खासी विवादित हुई थी। इस पर ईरान के तत्कालीन सर्वोच्च धार्मिक नेता अयातुल्लाह खुमैनी द्वारा रुशदी के खिलाफ जारी फतवे से इतना हंगामा हुआ कि ब्रिटेन और ईरान की सरकारों के बीच रिश्ते ही खत्म हो गए। किताब आने के बाद से २४ साल बीतने के बाद से यह लगने लगा था कि लोग इस विवाद को भूल गए हैं, पर इस नए वबाल ने घाव को हरा कर दिया है। खास बात यह भी है कि रुशदी भारत आते रहे हैं। वे यहाँ पैदा हुए हैं। वे २००७ में जयपुर सम्मलेन में भी शरीक हो चुके हैं। तब कहीं से कोई आवाज नहीं उठी। इससे अलग रुशदी एक महान किस्सागो हैं। उनकी कहानियाँ कुलाँचें भरती हैं। सत्तर के दशक में अंग्रेजी में भारतीय लेखन के एक आंदोलन की शुरुआत का श्रेय भी उन्हें ही जाता है। ऐसे में कहा जा सकता है कि जो लोग रुशदी का विरोध कर रहे हैं उन्होंने उनकी किसी किताब का एक पन्नाा भी नहीं पढ़ा है। सारा विरोध केवल कहासुनी पर ही आधारित है। यह प्रकरण किसी लिहाज से बहुत सुखद नहीं कहा जा सकता। जो हो, पर जिस तरह से कुछ सियासी दल इस प्रकरण को भुनाने में जुटे हैं, उसे देख यही कहा जा सकता है कि यह "सैटेनिक" पॉलिटिक्स के अलावा कुछ भी नहीं है।
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