हम इंसान हैं या हाड़-मांस से बनी मशीनें

हम इंसान हैं या हाड़-मांस से बनी मशीनें हम कैसे समाज में जी रहे हैं? यह इंसानों की बस्ती है या फिर हाड़-मांस की बनी मशीनों का संसार! यदि समाज में मानवीय सरोकार न हों, मतलबपरस्ती बेखौफ पसरी हो और एक-दूसरे के प्रति संवेदनाएं दम तोड़ चुकी हों तो फिर उसे मानवीय समाज कैसे माना जा सकता है। इंसान तो इंसान, जानवर भी किसी अपने की आवाज सुनकर उसमें सुर मिलाने लगते हैं। कुत्ते एक-दूसरे की रक्षा में दौड़ने लगते हैं और कम ताकतवर परिंदे भी अपने साथी पर खतरा भांपते ही चीत्कार करने लगते हैं और हम महानगरीय सांचे में सर्व-संसाधन प्राप्त लोग अपने से इतर सोचने की कल्पना भी नहीं करते। तभी तो दिल्ली जैसे जीवंत और मीडिया की चौकस नजरों से घिरे महानगर में दो जीती-जागती, नौकरीपेशा और पारिवारिक युवतियां हड्डियों के ढांचे में तब्दील हो जाती हैं और हमारे कानों पर जूं भी नहीं रेंगती। वे छह माह तक अपने घर में कैदियों की तरह रहती हैं, पर पड़ोसियों को तनिक भी चिंता नहीं होती। समाज में आ रही जड़ता की यही एक बानगी भर नहीं है। आए दिन ऐसी घटनाएं सामने आ रही हैं, जिनसे पता लगता है कि हम कितने असंवेदनशील होते जा रहे हैं। इंसानी जमीर मर जाने का इससे बदतर उदाहरण क्या होगा कि एक युवती के साथ पिता समान पुरुष बलात्कार का प्रयास करता है और जब वह अपनी इज्जत बचाने और मदद के लिए भागती है तो लोग रक्षक बनने की बजाए खुद ही भक्षक बनकर बलात्कार करने लगते हैं। हमारा मिजाज कितना मशीनी हो गया है, इसका एक और उदाहरण पिछले दिनों छत्तीसगढ़ में देखने को मिला। संवेदनहीन नियम-कानूनों का मारा एक परिवार सिर्फ इसलिए सामूहिक रूप से जहर खाकर आत्महत्या कर लेता है कि हमारा सिस्टम उन्हें चंद दिन गुजारने के लिए एक अदद छत तक मुहैया नहीं करा सका। ऐसा भी नहीं है कि उन्होंने चोरी-छिपे यह दुस्साहसिक कदम उठाया हो, लेकिन यांत्रिक सोच के कारण कोई उनका दर्द समझ ही नहीं सका और सार्वजनिक ऐलान के बाद भी न तो सरकार ने और न ही सामाजिक संगठनों ने उस परिवार को बचाने का कोई प्रयास किया। हां, सामूहिक मौत के बाद अब जरूर अखबार संवेदनाओं से रंग गए हैं और सरकार घडि़याली पश्चाताप से। मानव के मशीन में बदलने, हमारी बेखबरी, घर की चारदीवारी तक सिमट गई चिंताओं, मरती संवेदनाओं और दरकते रिश्तों की घोषणा नहीं करते?

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