ये इक्कीस लोग बहुत जल्दी भुला दिए जाएँगे। देश को यह चेतावनी देने के लिए, कि दुश्मन घर तक पहुँच गया है, इनके प्राणों का उत्सर्ग भी कभी याद नहीं किया जाएगा।
हिन्दुस्तान की महानगरी एक बार फिर दुश्मनों के आतंक से छलनी हो गई है। दौड़ती-भागती जिंदादिल महानगरी को तीन धमाकों ने लहूलुहान कर दिया और देश के २१ नागरिकों को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी। सैकड़ों जख्मी हो गए हैं। उन्होंने अपना काम कर दिया और उसके बाद देश में वह सब दोहराया गया जैसा ऐसे आक्रमण के बाद होता रहा है। टीवी चैनलों ने सनसनी बाँटी, खून दिखाया, पुलिस ने हाई अलर्ट किया, हेल्पलाइन नंबर खोले गए, घायलों को अस्पताल में दिखाया गया, नेताओं के दौरे हुए, सोनिया और प्रधानमंत्री भी घायलों से मिलने मुंबई आए और मृतकों के परिजनों को २ लाख रु. तथा गंभीर घायलों को एक लाख रुबए की सहायता की घोषणा भी की।
लेकिन किसी ने यह नहीं माना कि यह कोई साधारण दुर्घटना नहीं है, देश की अस्मिता और स्वाभिमान पर सीधा हमला है। ६४ साल से आजाद देश में दुश्मन आपके बीच पहुँच कर आपको ललकार रहा है और आपका सूचना तंत्र सुन्ना पड़ा है। सारे जिम्मेदार कयास लगा रहे थे और कोई भी इस स्थिति में नहीं था कि कुछ बता सके। वे लोग, जिन्होंने संविधान की शपथ ली है, ३१ माह तक आपको सुरक्षित रखने का एहसान जता रहे थे। देश के भावी प्रधानमंत्री अभी से मान चुके थे कि दुश्मनों के हर हमले को रोकना नामुमकिन है। समझना मुश्किल था कि ४० साल के इस सर्वगुण संपन्ना युवा की आवाज में इतनी लाचारी क्यों थी ?
सबसे ज्यादा तो अफ़सोस तब हुआ जब प्रधानमंत्री ने इस आतंकी घटना से उपजे दुःख, क्षोभ और ग्लानि को महज करोड़ - दो करोड़ के मुआवजे के बराबर मान लिया। दुश्मन घर में घुस कर जान ले ले तो मरने वाले बेगुनाह को शहीद क्यों नहीं माना जाना चाहिए? उन्हें किसी दुर्घटना में मरा मान लेना तो चरम असंवेदनशीलता है। ठीक है कि वे सरहद पर दुश्मनों से लड़ने नहीं गए थे लेकिन इस देश में जीने का उनका अधिकार तो संविधान ने उन्हें दिया है। क्या संविधान में यह लिखा है कि ऐसी घटनाओं में गई जानो की कीमत दो लाख रु. रहेगी?
ये इक्कीस लोग बहुत जल्दी भुला दिए जाएँगे। देश को यह चेतावनी देने के लिए, कि दुश्मन घर तक पहुँच गया है, इनके प्राणों का उत्सर्ग भी कभी याद नहीं किया जाएगा। उनके क्षत-विक्षत शवों का खौफनाक मंजर और उनके परिजनों का हृदयविदारक आर्तनाद भी यह अंधी और बहरी सरकार कभी याद नहीं रख पाएगी। जिस देश के प्रधानमंत्री के कार्यकाल में, उनकी आँखों के सामने, उनके मंत्री जितने रुपयों का भ्रष्टाचार करते हैं उसे गिनना भी आम आदमी के लिए संभव नहीं है, तो उस आम आदमी की जान का मोल दो लाख से ज्यादा क्या रखा जाए? उसे भी किसी गाँव की बिना फाटक की रेलवे लाइन के कारण हुई दुर्घटना में मरे आम आदमी जैसा मान लेना, किसी संगीन अपराध से कम नहीं है।
ये तो नाइंसाफी है। आतंकवाद की बलिवेदी पर मरने वालों की मौत को भी शहादत का दर्जा मिलना चाहिए। माना कि उनके शव क्षत-विक्षत हो गए थे फिर भी वे तिरंगे में लपेटे जाने के काबिल थे। उनके अंतिम संस्कार में भी बंदूकें उलटी की जाना चाहिए थीं। जब देश की आन-बान और शान के तिरंगे को दुश्मन ही झुका गए तो इन बेसमय बिदा हो लिए लोगों के गम में भी थोड़ी देर तो तिरंगा झुकाना चाहिए था...कि वे भी वतन की खातिर मरे हैं...कि उनकी चिताओं पर भी कभी मेले लग सकते हैं।
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