मुंबई पर एक बार फिर कायराना आतंकी घटना के बाद आतंकवाद देश में आज सबसे ज्यादा ज्वलंत और उद्वेलित करने वाला विषय है। आतंकवाद का आज का स्वरूप धर्माधता की वीभत्स और एक खतरनाक परिभाषा पर आधारित है, जो अपने किसी भी रूप में मानवीय विकास के लिए सही नही कही जा सकती है। धार्मिक विश्वासों को मानने वाला कट्टरपंथी वर्ग जो अभी तक धर्मभीरुता, अंधविश्वास और रुढि़वादिता का पर्याय था। आज आतंक का प्रतीक बनकर दुनिया को डरा रहा है। जहां दुनिया के हर हिस्से और समुदाय को आतंकवाद ने प्रभावित किया है, वहीं महिलाओं के विकास और आजादी के लिए आतंकवाद सबसे गंभीर चुनौती बनकर उभरा है। कट्टरपंथ अपनी मानसिक एकजुटता का भौंड़ा प्रदर्शन करते हुए महिलाओं के खिलाफ नित नई आचार संहिता गढ़ते हुए आज विक्षिप्त मानसिकता का परिचय दे रहा है। यह एक खतरनाक विचारधारा को जन्म दे सकती है। अफगानिस्तान और पाकिस्तान के सीमांत प्रांतों में जहां बारूद और गोलियों ने महिलाओं की आजादी छीनकर उन्हें चलती-फिरती काली गठरियों में तब्दील कर दिया है वहीं भारतीय जनवादी समाज में उनके विकास की नई अंगड़ाई को लाठी-डंडों से तोड़ने की कोशिश होती रहती है। मुंबई पर आतंकी हमले की ताजा घटना से जो खौफ और दहशत दिखाई पड़ती है, उससे भी बड़ा इस हमले के शिकार परिवारों में घुसा भय और असुरक्षा का विचार है, जिसके परिणाम बेहद दूरगामी और व्यापक हो सकते हैं। महिलाओं में यह खौफ और खामोशी केवल भारत या एशियाई समाजों में ही नहीं, बल्कि इसे अमेरिका जैसी विकसित दुनिया में भी देखा जा सकता है। 9/11 के बाद दहशत की कारगुजारी ने अमेरिका में भी महिलाओं के जीवन सुरक्षा चक्र को भेद दिया है। कट्टरपंथी मानसिकता के आतंकी मंसूबों का बहुआयामी प्रभाव दुनिया के जनवादी और सभ्य समाजों में कई रूपों में आज दिखाई दे रहा है। अमेरिकी समाज की पच्चीस फीसदी महिलाएं अपनी आर्थिक बदहाली के लिए आतंकवाद को जिम्मेदार मानती हैं। पंद्रह फीसदी महिलाओं ने अपनी विदेश यात्राओं में कटौती कर दी है। एक अमेरिकी सर्वेक्षण के अनुसार 18-29 आयु वर्ग की 64 फीसदी महिलाएं अभी तक 9/11 के हादसे से उबर नही पाई हैं और उनमें से 28 फीसदी अनिद्रा और 25 फीसदी बेचैनी का शिकार हैं। अफगानिस्तान में जो क्षेत्र अभी भी तालिबानीकरण का शिकार हैं वहां महिलाएं नकाब के भीतर सिमटे एक घरेलू सामान भर होकर रह गई हैं। जॉन गुडविन द्वारा लिखी गई किताब प्राइस ऑफ ऑनर उनकी सामाजिक स्थितियों का मार्मिक चित्रण करती है। यह किताब उनके नाकीय जीवन का एक बेहद वास्तविक लेखा-जोखा है। गुडविन के अनुसार एक अकेली महिला जो अपने बच्चे को चिकित्सक के पास ले जा रही थी उसे तालिबानी गार्ड द्वारा गोली मार दी गई। उस महिला के परिवार द्व़ारा विरोध किए जाने पर स्पष्ट किया गया कि कोई भी महिला किसी भी परिस्थिति में घर से अकेली नहीं निकल सकती है। तालिबानियों ने महिलाओं से शिक्षा लेने व देने का अधिकार पूरी तरह से छीन लिया है। तालिबानियों के सत्ता में आने से पहले काबुल में 70 प्रतिशत महिलाएं अध्यापन कार्य करती थीं, परंतु अब तालिबान प्रभावित क्षेत्रों में एक भी महिला अध्यापिका नजर नहीं आ सकती है। महिलाओं को स्वास्थ्य सेवाओं से भी वंचित रखा जाता है, क्योंकि अस्पतालों में पुरुष चिकित्सक हैं और पर पुरुषों से बात करना उनके लिए निषेध है। सिर से पैर तक शरीर ढंकने के लिए वो बाध्य हैं और नाखूनों पर नेल पालिश दिखाई दे जाने पर उनके नाखून उखाड़ दिए जाते हैं। परपुरुष गमन की सजा मौत है। एक महिला सुहेला जब एक गैर मर्द के साथ पाई गई तो उसे सार्वजनिक रूप से सौ कोडे़ मारने की सजा सुनाई गई मगर यह सजा कम थी, क्योंकि वह महिला अविवाहित थी। यदि यह महिला विवाहित होती तो पत्थरों से मारकर जान से मारने की सजा दी जाती। महिला अधिकारों के हनन की यह दास्तान केवल आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों और घटनाओं तक सीमित नहीं है। आतंकवाद विरोध के नाम पर शुरू शांति और जनवाद के तथाकथित अभियान की बर्बरताओं ने भी महिला अधिकारों के हनन की भयावह कथाएं रची हैं। इराक पर अमेरिकी कब्जे के बाद अमेरिकी सैनिकों की कारगुजारियां किसी भी सभ्य समाज को शर्मसार करने और दुनिया भर की महिलाओं के दिल दहला देने वाली हैं। अमेरिकी सैनिकों की बर्बरता की कथाएं केवल हत्या, गिरफ्तारी, निरंतर यातना, इराकियों के जनसंहार तक ही सीमित नहीं है। बलात्कार जैसे दुष्कर्म भी अब उनकी बर्बरता का नव उच्चारण है। इसी प्रकार का अमेरिकी कुकृत्य पिछली 12 मार्च, 2006 को अल-महमूदिया कस्बे में घटित हुआ जब 101वीं एयरबोर्न डिवीजन के स्टीवन ग्रीन ने अपने अन्य दो सैनिक साथियों के साथ मिलकर 15 वर्षीय अबीर कासिम हामजा नामक लड़की से बलात्कार किया और उसका कत्ल करने से पहले उन्होंने उसकी मां फाखरिया ताहा मुहसेन पिता कासिम हामजा राशिद व पांच वर्षीय बहन हादेल को भी मौत के घाट उतार दिया। इस घटनाक्रम के बाद इन सैनिकों ने लड़की के पेट के नीचे के हिस्से को पैरों तक जला दिया। अपने आप को बचाने की यह कुचेष्टा इन सैनिकों की घृणित मानसिकता को ही उजागर करती है। इस बारे में अमेरिकी सैनिक अधिकारियों का मानना था कि परिवार के कत्ल विद्रोही गतिविधियों का परिणाम है, न कि अमेरिकी सैनिकों की। नवंबर 2005 से मई 2006 तक ऐसे कम से कम पांच मामले जांच के दायरे में आए, जिसमें बीस सैनिकों को अभियुक्त बनाया गया। अब सवाल यह है कि ऐसे कितने मामले हैं जो अभी तक उद्घाटित नही हुए। आतंकवाद विरोध की यह बर्बरता तब और भी बढ़ जाती है जब हजारों परिवार इन अभियानों से विस्थापित होते हैं और गुजारे के लिए उन परिवारों की महिलाएं देह के बाजार का बिकाऊ सामान बनकर रह जाती हैं। कभी इराकी अर्थव्यवस्था का अभिन्न अंग रही इराकी महिलाएं आज शांति और जनवाद के कथित अभियान से डरी-सहमी हुई अपनी व अपने परिवार की सलामती के लिए दुआ करती अपने घरों में सिमटी हुई बैठी हैं। आतंकवाद से ग्रस्त अफगान महिलाओं की यह वेदना अब एक विरोध की शक्ल अख्तियार कर रही है। इसमें बड़ा हाथ अफगानी महिलाओं के एक क्रांतिकारी संगठन रावा यानी आरएडब्लूए का है। कुछ इसी प्रकार की पहल इराकी महिलाओं ने भी की और पाकिस्तान की आसमां जहांगीर सरीखी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने भी की। भारतीय जनवादी समाज में भी ऐसी असंख्य मिसालें मिल जाएंगी। महिलाओं का यही विरोध, जनांदोलन और लिंगभेद रहित जनवादी समाज की स्थापना के लिए संघर्ष ही एक रचनात्मक और सही अर्थो में विकासशील समाज की राह प्रशस्त कर सकता है, लेकिन सवाल यह है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय मानवाधिकार की तमाम रट लगाने के बावजूद भी इन महिलाओं के अधिकारों के लिए आगे क्यों नहीं आता।
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