भ्रष्टाचार का उदारीकरण

हमारे देश में शायद ही कोई क्षेत्र ऐसा होगा जहां नीचे से ऊपर तक भ्रष्टाचार का बोलबाला न हो। आम आदमी को अपने जमीन-जायदाद संबंधी कागजात, जाति और निवास प्रमाणपत्र से लेकर ड्राइविंग लाइसेंस जैसे मामूली दस्तावेजों के लिए भी कई दिन तक दफ्तरों के चक्कर काटने पड़ते हैं और फिर घूस देकर ही उन्हें हासिल कर पाता है। हमारे यहां 77 फीसदी रिश्वत काम वक्त पर कराने या कारोबारी नुकसान से बचने के लिए दी जाती है। रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार पर काबू पाने के लिए जो भी उपाय किए गए वे नक्कारखाने में तूती ही साबित हुए। इसका कारण यह रहा कि भ्रष्टाचार से निपटने के लिए बनी संस्थाओं को पूरे अधिकार नहीं सौंपे गए और न ही राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त रखा गया, फिर दोषियों को मिलने वाले संरक्षण और उन पर होने वाली कार्रवाई में देरी से भी कई मामले बीच में ही दम तोड़ देते हैं। अब तक का अनुभव यही रहा है कि जब-जब भ्रष्टाचार, काले धन का मामला जोर-शोर से उठता है तब सरकार जांच आयोग बिठा देती है जिससे मामला ठंडा पड़ जाता है, लेकिन पहले के जांच आयोगों की रिपोर्ट को लागू करने या विद्यमान कानूनों पर कार्रवाई करने के प्रति सरकार सोयी रहती है। उदाहरण के लिए बाबा रामदेव की भूख हड़ताल से पहले सरकार ने काले धन की जांच के लिए तीन समितियों और अलग से एक नया महानिदेशालय गठित कर दिया, लेकिन सरकार ने काले धन का पता लगाने के लिए गठित चार समितियों की सिफारिशों पर अमल के बारे में कुछ नहीं कहा। आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत में कहा गया कि उदार अर्थव्यवस्थां के तहत सरकारी नियम-कायदे उदार और पारदर्शी होंगे जिससे घोटालों और प्रशासनिक भ्रष्टाचार में कमी आएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ऊंचे पदों पर काबिज नौकरशाहों ने उदारीकरण के चलते निजी क्षेत्र के उद्यमों में ज्यादा भ्रष्टाचार की संभावनाएं खोज लीं और राजनेताओं को भी रास्ता दिखा दिया। भारतीय पूंजीपतियों के संगठन सीआइआइ ने एक बयान में कहा कि भ्रष्टाचार के कारण देश में पर्याप्त विदेशी पूंजी निवेश नहीं हो रहा है। भारत में भ्रष्टाचार का उदारीकरण व काले धन के कई माध्यम रहे हैं। मॉरीशस रूट से विदेशी कंपनियों द्वारा कर चोरी और पार्टिसिपेटरी नोट के जरिए हवाला मार्ग से भारत में काले धन का निवेश हो रहा है। उदारीकरण के दौर में हमारी संसदीय प्रणाली अब कोई विशेष मायने नहीं रखती, क्योंकि सरकार किस दिशा में चलेगी यह कॉरपोरेट समूह तय करने लगे हैं। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि नीरा राडिया जैसे बिचौलियों के जरिए बन रहे सत्ता-कॉरपोरेट व नौकरशाह के कॉकटेल को तोड़ने वाला कोई नहीं है। कॉकटेल के खेल को स्पेक्ट्रम घोटाले से समझा जा सकता है। स्वान टेलीकॉम को 1537 करोड़ रुपये में लाइसेंस मिला, लेकिन कुछ दिनों बाद ही उसने 45 फीसदी शेयर 4200 करोड़ में संयुक्त अरब अमीरात की एक कंपनी को बेच दिए। इसी तरह यूनिटेक वायरलेस को स्पेक्ट्रम का लाइसेंस 1661 करोड़ में मिला और यूनिटेक ने नार्वे के टेलीनोर को 60 फीसदी शेयर 6120 करोड़ में बेचे। आज कॉरपोरेट लॉबीइंग हो रही है जो उदारीकरण की ही देन है। यह कहानी भारत की ही नहीं, बल्कि ब्राजील, रूस, चीन, मलेशिया जैसे देशों की भी है जिन्होंने पिछले दो-तीन दशकों में अपने बाजार खोले हैं। अमेरिका के रोचेस्टेर इंस्टीट्यूट ने भ्रष्टाचार और उदारीकरण के संबंधों का विश्लेषण करते हुए यह निष्कर्ष निकाला कि जिन देशों में लोकतंत्र पहले और आर्थिक उदारीकरण बाद में आया है वहां मुक्त बाजार ने भ्रष्टाचार को नए आयाम दिए हैं। उदारीकरण अनंत अवसर, नियंत्रणों से मुक्ति और पैसे की आंधी लेकर आता है जिसके सामने लोकतंत्रों के कमजोर नियमन प्राय: फेल जाते हैं। यह बात भारत पर पूरी तरह फिट बैठती है।

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