चलेंगे हम भी कभी सिर उठा के

 आखिरकार मरना तो सभी को है, लेकिन पाकिस्तानी पत्रकार सलीम शहजाद को जल्दबाजी में नहीं मारा गया। हत्यारे नें उन्हें सुधरने का अवसर दिया होगा, लेकिन सलीम शहजाद दिमाग से ज्यादा दिल से काम लेते थे, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सिद्धांतों पर अमल करते थे और पत्रकारिता की परिभाषा के तहत ही काम करते थे। सलीम शहजाद को शायद पता नहीं था कि पाकिस्तानी समाज में अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता के मूल सिद्धांतों और शायद पत्रकारिता की परिभाषा के ज्यादा मायने रह नहीं गए हैं। एक पत्रकार का काम सच लिखना है, लेकिन ऐसा कई लोगों को नागवार गुजरता है। सलीम शहजाद को किसने मारा यह सब जानते हैं और ये भी कि इस तरह के कारनामों को पाकिस्तान में कौन अंजाम देता है। शहजाद से नाराजगी एक खबर के बारे में थी। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में अलकायदा और पाकिस्तानी नौसेना के कुछ अधिकारियों के बीच कथित संबंधों का उल्लेख किया था। उन्होंने घर के भेदी को जनता के सामने लाने की कोशिश की थी। नतीजा ये कि इसके कुछ ही दिन बाद वह अचानक गायब हो गए और फिर उनका शव मिला। अनेक पर्यवेक्षक और जानकार मानते हैं कि नि:संदेह पाकिस्तानी सत्ता व्यवस्था और कुछ चरमपंथी तत्वों के बीच संबंध हैं। कराची में नौसेना के ठिकाने पर हमला हुआ तो नौसैनिक अड्डे के भीतर से ही चरमपंथियों को मदद भी मिली। उससे पहले 2009 में सेना के मुख्यालय पर हमला हुआ था तो उस समय भी कुछ सैन्य अधिकारियों ने हमलावरों को संवेदनशील जानकारी दी थी। पत्रकारों ने जब भी इन मुद्दों पर या फिर सेना के खिलाफ लिखा है तो वह कम से कम कुछ दिनों के लिए आइएसआइ के मेहमान जरूर बने हैं। हम भी दो बार वहां चाय पी चुके हैं। ख़ुशकिस्मती है कि आज भी हम आपके लिए लिख रहे हैं। बलूचिस्तान के तो मेरे कुछ ऐसे मित्र हैं जिनका अभी तक कोई पता ही नहीं चल सका है। आइएसआइ के अधिकारी जब भी पत्रकारों से मिलते हैं तो उन्हें यह कहते हैं कि राष्ट्रीय हित में इस प्रकार की ख़बरें नहीं लिखनी चाहिए। इस तरह इशारे में वह साफ कर देते हैं कि पत्रकार उनके इशारे पर काम करें। ऐसा लगता है कि चरमपंथियों और सेना के संबंध भी राष्ट्रीय नीति का हिस्सा हैं। बहरहाल पाकिस्तान की ख़ुफिया एजेंसियां जिस तरह से पत्रकारों के साथ व्यवहार कर रही हैं उसे देखते हुए यही कहा जा सकता है कि यह कम से कम देशहित में नहीं है।

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