भारत की "भँवरी बाई" या पाकिस्तान की "मुख्तारन माई" को सिर्फ इसलिए बलात्कार का शिकार होना पड़ा कि वे महिला अधिकारों की लड़ाई लड़ रही थीं। यह अजीब इत्तफाक है कि अदालत से दोनों को न्याय नहीं मिला।
शासकीय, प्रशासकीय स्तर पर भारत-पाकिस्तान के बीच चाहे जितनी दुश्मनी हो लेकिन औरत की स्थिति तथा उसके प्रति नजरिए में कई बार समानताएँ भी देखने को मिलती हैं। हाल में पाकिस्तान की न्यायपालिका भी लगभग एक तरह के मामले में भारत की न्यायपालिका के नक्शेकदम पर चली है। पाकिस्तान की मुख्तारन माई के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना में शामिल छः आरोपियों में से पाँच को जमानत दे दी गई है, जिसने भारत की भँवरी बाई केस के हश्र की याद ताजा की है।
जयपुर के पास भटेरी गाँव की भँवरी, जो महिला सामाख्या कार्यक्रम में साथिन का काम करती थी, वह इलाके की ऊँची जाति के दबंगों के हाथों सामूहिक बलात्कार की शिकार हुई थी। उधर पाकिस्तान की मुख्तारन माई पर आरोप लगाया गया कि उसके १२ साल के छोटे भाई का ऊँची बिरादरी कही जाने वाली मस्टोई जाति के किसी महिला के साथ अवैध संबंध था। इसी को आधार बना कर बाकायदा मस्टोई जाति के पंचायत के फैसले के तहत ६ लोगों ने उसके साथ बलात्कार किया। यहाँ भी औरत के शरीर को मर्दानगी का खेल खेेलने के लिए सुनियोजित रूप से अखाड़ा बनाया गया और भँवरी के साथ भी योजनाबद्ध ढंग से एकत्र होकर उसके पति के सामने उसके साथ शारीरिक तथा यौनिक हिंसा हुई।
अदालतों को देखिए कि तमाम सबूतों और मामलों के राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियाँ बनने के बावजूद भँवरी को न्याय नहीं मिला। राजस्थान की निचली अदालत ने केस खारिज करते हुए जो तर्क दिया था वह विचलित करने वाला था। भँवरी के बलात्कारियों में रिश्ते में चाचा एवं भतीजा लगने वाले दो लोग भी शामिल थे। अदालत ने अपने फैसले में भारतीय संस्कृति का गुणगान करते हुए कहा कि ऐसे "गंदे काम में" ऐसे दो साथ नहीं रह सकते। आरोपियों को जमानत मिल गई और पिछले डेढ़ दशक से प्रस्तुत केस हाई कोर्ट में लटका हुआ है।
उधर मुख्तारन अपने साथ होने वाली हिंसा और अन्याय के खिलाफ लड़ रही है लेकिन एक को छोड़ बाकी पाँचों रिहा हो गए। पाकिस्तानी महिला अधिकार कार्यकर्ताओं को तथा प्रगतिशील लोगों को लगता है कि उनके देश में महिलाएँ महफूज नहीं हैं और हमारे यहाँ भी जो स्त्री अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं, उन्हें भी महिलाओं की सुरक्षा खतरे में पड़ी दिख रही है।
दोनों ही मामलों में सिल्वर लाइनिंग अर्थात सकारात्मक चीज यही कही जाएगी कि दोनों ने अपने साथ हुए इस अन्याय का मुकाबला किया और वे आज भी संघर्षरत हैं। मुख्तारन को यहाँ की भँवरी की तरह भले ही न्यायालय से न्याय नहीं मिला हो किंतु वह महिलाओं के खिलाफ होने वाले यौनिक हिंसा के विरुद्ध न्याय की लड़ाई की अब प्रतीक बन चुकी है। खुद अनपढ़ मुख्तारन अब एक स्कूल चला रही है।
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