पिछले दिनों सिविल सेवा अधिकारियों के सम्मेलन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने स्वीकार किया कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता के सब्र का बांध टूट चुका है और अब वह ठोस कार्रवाई चाहती है। इसे एक ईमानदार, किंतु बेबस प्रधानमंत्री का मूक रोदन नहीं तो और क्या कहें? जुलाई, 2008 में विश्वासमत प्राप्त करने के लिए सांसदों की खरीद-फरोख्त से लेकर 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, अंतरिक्ष घोटाला और राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में सरकारी स्तर पर मचाई गई लूट के वह मूकदर्शक बने रहे। नेता प्रतिपक्ष की आपत्तियों को नजरअंदाज कर केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के पद पर एक दागदार व्यक्ति को नियुक्त उन्होंने किया। सत्तासुखभोग के लिए दूरसंचार मंत्री को संप्रग की दूसरी पारी में भी लूट मचाने की छूट उन्होंने दी। प्रधानमंत्री ने देश से वादा किया था कि सत्ता में वापस आने पर देश से लूटकर बाहर ले जाए गए धन को कांग्रेस वापस लाएगी, किंतु क्या यह सच नहीं है कि कांग्रेसनीत सरकार अपनी दूसरी पारी में भी काले धन के संदर्भ में तब तक सोती रही, जब तक सर्वोच्च न्यायालय ने उसे कड़ी फटकार नहीं लगाई? सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद सरकार ने देश के सबसे बड़े टैक्स चोर हसन अली पर कार्रवाई करने की पहल की है, किंतु जिस हसन अली के अवैध कारनामों की खबर प्रवर्तन निदेशालय को सन 2007 में ही लग चुकी थी उसे किसके संरक्षण में इतने वषरें तक इस अवैध कारोबार को चलाए रखने का अभयदान दिया गया? काले धन की वापसी को लेकर सरकार की अब तक की तत्परता केवल एक आदमी हसन अली तक ही सीमित है। काले धन के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र द्वारा छेड़ी गई मुहिम में जहां दुनिया भर के 128 देश रजामंद हैं, वहीं 14 देश इस संधि से अलग हैं, जिनमें भारत भी एक है। क्यों? हसन अली ने प्रवर्तन निदेशालय द्वारा की जा रही पूछताछ में अपने गोरखधंधे के साथी, महाराष्ट्र के तीन नामचीन कांग्रेसी नेताओं के शामिल होने का खुलासा किया है। वे कौन हैं? प्रधानमंत्री इन तमाम विरुपताओं के मूकदर्शक हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ जनाक्रोश को उचित ठहराने वाले प्रधानमंत्री को यह भी बताना चाहिए कि जिस लोकपाल बिल को जल्द से जल्द पारित कराने का समर्थन वह कर रहे हैं उसी लोकपाल बिल की राह में दिन-प्रतिदिन नए-नए अवरोध खड़े करने वाले कांग्रेसी नेताओं के खिलाफ उन्होंने मौन क्यों साध रखा है? अन्ना हजारे की प्रारूप समिति में संविधानेत्तर लोगों के शामिल होने का आरोप लगाने वाले कांग्रेसियों के मौन समर्थन में खड़े प्रधानमंत्री यह बताएं कि संप्रग समन्वय समिति की अध्यक्षा के नाते सोनिया गांधी का सत्ता अधिष्ठान पर हावी हो जाना कहां तक संविधान सम्मत है? भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के नेतृत्व में किए गए आंदोलन को जनता का व्यापक समर्थन मिलना वस्तुत: ऐसे दोहरे मापदंडों के प्रति जनता के आक्रोश को ही रेखांकित करता है। भ्रष्टाचार का एक आयाम यह भी है कि यह जीवन के हर पहलू के साथ कहीं न कहीं जुड़ा रहा है और कुछ हद तक इसके साथ एक समझौतावादी मानसिकता भी विकसित हो चुकी थी, किंतु जनता का जो वर्तमान आक्रोश है वह सार्वजनिक धन की खुलेआम लूट और जिन जनप्रतिनिधियों पर जनतंत्र की निगहबानी की जिम्मेदारी थी, उनकी इस लूट में या तो संलिप्तता या उसके प्रति उनकी तटस्थता से पैदा हुआ है। सूचना क्रांति के इस युग में इंटरनेट के माध्यम से लोगों की पहुंच दूरस्थ क्षेत्रों तक बनी है और इसीलिए अन्ना हजारे के चार दिन के आमरण अनशन को देशविदेश से जैसा व्यापक समर्थन मिला, उससे फिलवक्त यह आश्वस्ति जरूर हुई है कि देश की अर्थव्यवस्था व विकास को दीमक की तरह चाट रहे भ्रष्टाचार और लूट को अब साधारण नागरिक और अधिक सहने को तैयार नहीं है, किंतु इसके लिए जिस राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है, क्या वह भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी कांग्रेस में है? क्या लोकपाल बिल के समर्थन में खड़े अन्य राजनीतिक दलों का दामन बेदाग है? जनदबाव में यदि कांग्रेस लोकपाल बिल पारित कराने में सकारात्मक सहयोग करती है तो क्या लोकपाल बिल का मसौदा भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म कर पाने में सफल हो सकेगा? यक्ष प्रश्न यह भी कि क्या भ्रष्टाचार को केवल एक बिल मात्र बना देने से खत्म किया जा सकता है? वस्तुत: जब तक हमारे अंदर दायित्व बोध पैदा नहीं होगा, जब तक हम अपने लिए शुचिता का मापदंड स्वत: तय नहीं करेंगे तब तक भ्रष्टाचार से मुक्ति पाने की कामना गलत है। समाज में पैदा हुई अन्य विकृतियों की तरह ही भ्रष्टाचार भी हमारी एक खास मानसिकता के कारण पैदा हुआ है। सनातन परंपराओं से हमें जो मूल्य मिले हैं, उसके अनुरूप जब तक हम समष्टि के लिए जागृत नहीं होंगे तब तक सामाजिक बुराइयों का खात्मा भी कठिन है। समाज में आए इस पतन के लिए मैकाले-मार्क्स के मानसपुत्रों द्वारा पोषित शिक्षण व्यवस्था भी कसूरवार है, जिसने धीरे-धीरे सामाजिक मर्यादा का तानाबाना ही ध्वस्त कर डाला। भारतीय समाज एक धर्मभीरू समाज रहा है और किसी भी गलत काम के लिए उसके अंदर अपराध भाव रहा है। वह भीरूता खत्म हुई है। समाज ने हमें जो भी दायित्व सौंपा है, उसके सकारात्मक और पारदर्शी निर्वाह के लिए स्वयं हमें ही मर्यादा की सीमाएं तय करनी होंगी। पश्चिम के भौतिकवादी दर्शन के विपरीत भारतीय जीवनपद्धति आध्यात्मिकता प्रधान रही है। हमें उन मूल्यों को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है, जो लोकपाल बिल बना लेने मात्र से संभव नहीं है। प्रधानमंत्री समेत संप्रग समन्वय समिति व कांग्रेस की अध्यक्षा सोनिया गांधी भ्रष्टाचार के प्रति शून्य सहनशीलता बरतने का दावा कर रहे हैं, किंतु वास्तविकता इसके विपरीत है। राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में मची लूट के लिए अब तक चार-पांच अफसरों पर ही कार्रवाई की गई है और वह भी देर से। क्या इतने बड़े पैमाने पर लूट-खसोट महज सरकारी बाबुओं की ही करतूत थी? सर्वोच्च न्यायालय की फटकार के बाद प्रधानमंत्री ने जांच के लिए शुंगलू समिति का गठन किया था। शुंगलू समिति ने कलमाड़ी के साथ दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को भी बराबर का कसूरवार माना है। उन पर क्या कार्रवाई हुई? टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले के सिलसिले में तत्कालीन दूरसंचार मंत्री ए राजा की गिरफ्तारी भी महज नूराकुश्ती है। गठबंधन धर्म की विवशता ने यदि प्रधानमंत्री को राजा पर कार्रवाई करने से रोक रखा था तो अब उनके हाथ क्यों बंधे हैं? जब उनकी कथनी और करनी में जमीन-आसमान का फर्क हो तो भ्रष्टाचार से लड़ने की उनकी दावेदारी पर कैसे विश्वास किया जाए?
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