कैसे होंगी महिलाएँ सुरक्षित

महिलाओं के लिए सिर्फ अकेले निकलना ही खतरनाक नहीं है बल्कि समाज के वहशी कभी भी और कहीं भी उन पर हमला करने को तैयार हैं। रात

तो सुरक्षित नहीं ही है, दिन का भी कोई भरोसा नहीं है।



तिलक नगर के परशुराम अपने घर के बाहर बैठे थे। उसी दौरान नशे में धुत चार युवक आए और उनकी बेटी से छेड़खानी करने लगे। परशुराम ने इसका विरोध किया तो उनको इतने ईंट और डंडे मारे कि परशुराम की बाद में अस्पताल में मौत हो गई। उधर कोलकाता के २४ परगना का १६ वर्षीय राजीव दास रात में अपनी बहन को कॉल सेंटर की नौकरी से लेकर साइकल से घर जा रहा था तभी उसकी बहन के साथ कुछ युवक अश्लील हरकतें करने लगे। राजीव के विरोध करने पर उन युवकों ने उसकी तब तक पिटाई की जब तक उसने दम नहीं तोड़ दिया। इसमें उसकी बहन को भी काफी चोटें आईं। ये अपराधी हो सकते हैं कि कम पढ़े-लिखे हों, लेकिन छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले के एक निजी इंजीनियरिंग कॉलेज के ६ छात्रों ने, जो हॉस्टल में रहते थे, एक युवती के साथ सामूहिक बलात्कार किया। लड़की अपनी मंगेतर के साथ टहल रही थी तभी वे सब आए और मंगेतर की पिटाई कर उसे अधमरा कर दिया और लड़की के साथ बलात्कार किया।

उपरोक्त तीनों घटनाओं में महिलाएँ अपने परिवार के किसी न किसी पुरुष के साथ थीं इसलिए महिलाओं के लिए सिर्फ अकेले निकलना ही खतरनाक नहीं है बल्कि वहशी कभी भी और कहीं भी हमला करने को तैयार हैं। रात तो सुरक्षित नहीं ही है लेकिन दिन का भी कोई भरोसा नहीं है। कोई दिन ऐसा नहीं गुजरता कि अखबारों में देश के किसी कोने से यौन हिंसा की खबरें न हो। यौन हिंसा की शिकार सिर्फ वही नहीं होती हैं जो प्रत्यक्ष रूप से शिकार होती हैं, बल्कि उसके साथ-साथ अन्य महिलाएँ भी दहशत में आ जाती हैं तथा असुरक्षित महसूस करने लगती हैं।

अकेले दिल्ली में हर साल ५०० से ६०० के आसपास बलात्कार के केस दर्ज होते हैं। वैसे अन्य राज्यों की स्थिति भी कोई बेहतर नहीं है। उदाहरण के तौर पर बिहार में महिलाओं के खिलाफ यौनिक हिंसा लगातार बढ़ रही है। राज्य पुलिस मुख्यालय के आँकड़ों के मुताबिक २००६ में महिलाओं के खिलाफ उत्पीड़न तथा अत्याचार की घटनाएँ ४९७४ थीं , २००७ में ४९६९, २००८ में ६१८६ तथा २००९ में ६९९३ हो गईं। देश के पैमाने पर भी आँकड़े चिंतनीय बने हुए हैं। २००६ से २००८ के बीच देश में ६१,५५२ महिलाएँ बलात्कार की शिकार हुई थीं, जबकि वास्तव में ये मामले दर्ज मामलों से कई गुना अधिक होते हैं क्योंकि घर-परिवार, समाज ऐसी घटना को लोकलाज की भय से दबा देता है या पीड़ित खुद ही चुप्पी लगा जाती है।

ऐसे वातावरण के कारण कई बार परिजन घर की महिलाओं और बच्चियों पर भी पाबंदी लगाने लगते हैं जो उनके काम करने तथा अपना विकास करने के अवसर को बाधित करता है। महिलाएँ खुद कभी संगठित रूप में तो कभी अकेले के प्रयास से इस मानसिकता से लड़ने का प्रयास कर रही हैं। सरकारों ने भी इस दिशा में काम किया है लेकिन उन्हें इसकी गारंटी भी करनी चाहिए। साथ में नागरिक-समाज इसके लिए क्या कर रहा है यह भी स्पष्ट होना चाहिए।

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