ईशनिंदा के नाम पर


कट्टरपंथियों ने अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री शहबाज भट्टी को मौत की नींद सुला दिया पाकिस्तान में उदारता, सहिष्णुता असहमति की एक और आवाज को हमेशा-हमेशा के लिए खामोश कर दिया गया। मजहबी कट्टरपंथियों ने अल्पसंख्यक मामलों के केंद्रीय मंत्री शहबाज भट्टी को मौत की नींद सुला दिया। दो महीने पहले ही पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के गवर्नर सलमान तासीर भी इसी धर्मांधता के शिकार हुए थे। सलमान तासीर की तरह शहबाज भट्टी का भी "गुनाह" यही था कि उन्होंने पाकिस्तान के विवादित ईशनिंदा कानून में बदलाव की माँग का समर्थन किया था। शहबाज भट्टी कैथोलिक ईसाई थे और ईशनिंदा कानून की मुखर आलोचना करने के कारण उन्हें पिछले दिनों हत्या की धमकियाँ भी मिली थीं। मरहूम जनरल जिया उल हक की हुकूमत के समय बने इस कुख्यात कानून के तहत कुरआन शरीफ, मजहब--इस्लाम और पैगंबर हजरत मोहम्मद अन्य मजहबी शख्सियतों के बारे में कोई भी आलोचनात्मक टिप्पणी करने पर सजा--मौत हो सकती है। हाल के दिनों में यह कानून तब चर्चा में आया, जब पाँच बच्चों की ४५ वर्षीय माँ आसिया बीबी को गत नवंबर माह में इस कानून के तहत मौत की सजा सुनाई गई। आसिया बीबी पर आरोप है कि उसने मोहम्मद साहब के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी की थी। हालाँकि आसिया बीबी इस आरोप को नकारती रही और उसका कहना है कि उस पर आपसी रंजिश के चलते यह आरोप मढ़ा गया है। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की वरिष्ठ सांसद शेरी रहमान ने आसिया बीबी का बचाव करते हुए इस कानून में संशोधन के लिए एक निजी विधेयक भी नेशनल असेंबली में पेश किया था जिसके कारण उन्हें भी धमकियाँ मिलीं आखिरकार अपने ही पार्टी नेतृत्व के दबाव के चलते शेरी रहमान को यह विधेयक वापस लेना पड़ा। पाकिस्तान के कई उदारवादी समूहों और बुद्घिजीवियों ने भी आसिया बीबी का बचाव करते हुए इस कानून में सुधार की माँग की है। इस कानून का सबसे ज्यादा शिकार अल्पसंख्यक, खासकर ईसाई समुदाय के लोग होते हैं। पाकिस्तान में ईसाइयों की आबादी कुल आबादी की मुश्किल से तीन प्रतिशत है। शहबाज भट्टी इस समूह के सबसे बड़े नेता थे। जाहिर है कि उनकी हत्या के बाद ईसाई समुदाय अपने को और ज्यादा असुरक्षित महसूस करेगा। अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री शहबाज भट्टी की हत्या से इस बात की पुष्टि हो जाती है कि पाकिस्तान में सहनशीलता की संस्कृति का अंत हो गया है। पाकिस्तान सरकार में शहबाज भट्टी अकेले गैर मुस्लिम मंत्री थे। उनकी हत्या से पाकिस्तान सरक से अल्पसंख्यकों का भरोसा उठ गया है। वे हर पल असुरक्षा के माहौल में जीने को अभिशप्त हैं। भट्टी की हत्या के बाद पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों का कोई अभिभावक नहीं रहा। जरदारी प्रशासन देश के अल्पसंख्यकों के इस खोए हुए भरोसे को लौटा सकेगा, यह उम्मीद भी दूर-दूर तक नजर नहीं रही है। शहबाज भट्टी की हत्या से चरमपंथ और आतंकवाद को खत्म करने के पाकिस्तान सरकार के इरादे पर भी प्रश्नचिह्न लगा है। भट्टी की हत्या से साफ है कि तालिबानी ताकतों पर पाकिस्तानी सरकार का नियंत्रण नहीं रह गया है। शहबाज भट्टी को ईशनिंदा कानून में सुधार के लिए अभियान चलाने की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी है। दरअसल, धर्मांध ताकतों ने ईशनिंदा कानून को उदारवादियों को दबाने का औजार बना लिया है। ताजा हालात में पाकिस्तान का यह संकट कुछ-कुछ राजनीतिक भी लगता है, क्योंकि आसिफअली जरदारी और युसूफ रजा गिलानी की अल्पमत हुकूमत कुछ कट्टरपंथी राजनीतिक समूहों के समर्थन से ही चल रही है।यह चुनौती इसलिए कड़ी है क्योंकि फौज का तालिबान को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन हासिल है। चरमपंथियों को पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई का भी समर्थन हासिल है। इसीलिए भट्टी की हत्या की जिम्मेदारी लेने वाले तालिबान के खिलाफ पाकिस्तान सरकार ने अभी तक कोई कार्रवाई नहीं की है। कहने की जरूरत नहीं कि तालिबानी ताकतों की हरकतों की निंदा के लिए भी जो राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए, उसका पाकिस्तान में अभाव दिखता है। विपक्षी जमात इस्लामी ने तो उल्टे आतताइयों की कार्रवाई का समर्थन किया है। पाकिस्तान में चरमपंथ का जो नाम हो-अलकायदा, तालिबान या लश्कर तैयबा, उसका मकसद पूरे पाकिस्तान में पंथिक कट्टरता आधारित आतंकवाद फैलाना है। सत्ताधारी दल के नरम रुख के कारण समूचा पाकिस्तान तालिबान के लिए निरापद पीठ बना हुआ है। इसी कारण एक तरफ तालिबान की ताकत बढ़ी है तो दूसरी तरफ सरकार की दुर्बलता जगजाहिर हुई है। तालिबानी ताकतों के विरोध प्रदर्शनों से घबराई पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने ईशनिंदा कानून में संशोधन के फैसले से अपने कदम पीछे खींच लिए तो उससे सरकार की कमजोरी ही सामने आई थी और चरमपंथियों का मनोबल बढ़ गया था। यदि पाकिस्तान सरकार चरमपंथियों के सामने नहीं झुकती और ईशनिंदा कानून में संशोधन के अपने फैसले पर अडिग रहती तो आज धर्माधता के खिलाफ खड़ा होने में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को सहूलियत होती। जरदारी प्रशासन की दुर्बलता दूसरे शब्दों में लोकतंत्र की दुर्बलता भी है। पाकिस्तान इस मामलमें बड़ा अभागा देश है कि वहां एक समूची पीढ़ी सैनिक शासन में पली और बड़ी हुई। लोकतंत्र के लिए वह देश आज भी नौसिखिया है। लोकतंत्र के कमजोर होने के कारण ही वहां धर्माध ताकतें फल-फूल रही हैं। वहां लोकतंत्र बंदूक की नोक पर चल रहा है। कट्टरता के पोषण के लिए आज पूरे पाकिस्तान को विपन्न कर दिया गया है। पूरा देश बारूद के ढेर पर बैठा है। वहां बारूद का ढेर अचानक नहीं लगा। वह अनवरत इकट्ठा होता रहा। अतीत में उसी की परिणति पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री लियाकत अली खान, जुल्फिकार अली भुट्टो से लेकर बेनजीर भुट्टो की हत्या के रूप में हुई थी। जिन्होंने बेनजीर को मारा, उन्होंने ही सलमान तसीर और शहबाज भट्टी को मारा है। आज हाल यह है कि पाकिस्तान के अधिकतर प्रारंभिक शैक्षणिक प्रतिष्ठान चरमपंथ सिखाने के केंद्र बन गए हैं। पाकिस्तान के जन्म के समय मदरसों की संख्या 137 थी, जो आज बढ़कर पचास हजार से अधिक हो गई है। ये मदरसे कट्टरता की आरंभिक पाठशाला हैं। यह भी याद रखना चाहिए कि यदि पाकिस्तान में लोकतंत्र मजबूत रहता तो कट्टरता से लड़ा जा सकता था। पाकिस्तान में यदि लोकतंत्र मजबूत रहता तो वहां अग्रगामी प्रगतिशील ताकतें मजबूत होतीं। प्रतीत होता है कि जरदारी और गिलानी को भी लोकतंत्र को मजबूत बनाने से ज्यादा अपनी कुर्सी बचाने की चिंता है। जरदारी गिलानी को यह समझ कब आएगी कि उन्मादी चरमपंथी ताकतों की मौजूदा हरकतें यदि जारी रहीं तो उनकी सत्ता भी निरापद नहीं रहेगी। आज भी वे कहने के लिए ही राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री हैं। कल नहीं तो परसो फौज द्वारा सत्ता संभालने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। जरदारी गिलानी को यह भी स्मरण रखना चाहिए कि सत्ता में बैठे लोग यदि दकियानूसी विचारों से मुक्त नहीं होते तो वे उन्मादी चरमपंथी तत्वों से नहीं लड़ सकेंगे।

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