स्त्री मुक्ति का अधूरा सपना

भारत की महिलाएँ घर से बाहर निकली हैं। उनमें एक नया आत्मविश्वास जागा है और उन्होंने हर काम को एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया है। जीवन के हर क्षेत्र में अब उनकी उपस्थिति देखी जा रही है। ङ"ख१६ऋ

्‌ीटा्रह वर्ष अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का शताब्दी वर्ष है। महिला दिवस का इतिहास घर की चहारदीवारी के बाहर कामकाज करने वाली महिलाओं के संघर्ष की गाथा है, जो बीसवीं सदी के पहले दशक में शुरू हुई थी। १९०८ में न्यूयॉर्क में हजारों महिलाएँ उचित वेतन, आठ घंटे की कार्यावधि और मताधिकार की माँग लेकर सड़कों पर उतरी थीं। १९१० में कोपनहेगन में कामकाजी महिलाओं के दूसरे अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में जर्मनी की सोशल डेमोके्रटिक पार्टी की नेता क्लारा जेटकिन ने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने का प्रस्ताव पेश किया था। उनका सुझाव था कि यह खास दिन वर्ष में एक बार प्रत्येक देश मनाए। यह प्रस्ताव सर्वानुमति से पारित हुआ और इस तरह शुरू हुआ अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने का सिलसिला। पहला अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस १९ मार्च को मनाया गया। १९ मार्च का दिन इसलिए चुना गया था कि १९ मार्च, १८४८ क्रांति का दिन था। यह क्रांति प्रशिया के राजा के खिलाफ उसकी शोषित प्रजा ने की थी, जिसमें महिलाओं ने भी बढ़-चढ़कर भागीदारी की थी। १९१३ से अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस १९ मार्च के बजाय ८ मार्च को मनाया जाने लगा और यही तारीख महिला दिवस के रूप में मान्य हो गई। १९७५ में संयुक्त राष्ट्र ने भी इस दिवस को आधिकारिक मान्यता दे दी।

बहरहाल, महिला दिवस का शताब्दी वर्ष मौका है इस बात का जायजा लेने का कि महिलाओं ने इन सौ वर्षों में क्या हासिल किया। यह सच है कि पिछले ढाई-तीन दशकों में योरप के देशों की तरह हमारे देश में भी महिलाएँ जीवन के हर क्षेत्र में आगे आई हैं। वे घर से बाहर निकली हैं। उनमें एक नया आत्मविश्वास जागा है और उन्होंने हर काम को एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया है। हमारे सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में अब महिलाएँ कामकाज करती दिखाई देती हैैं। हर छोटे-बड़े शहर में अब सड़कों-बाजारों का दृश्य बदल चुका है। हर जगह महिलाएँ कार, स्कूटर या मोपेड चलाती दिख रही हैं। ऐसे किसी भी क्षेत्र में जहाँ पहले केवल पुरुषों का वर्चस्व था, अब वहाँ महिलाओं की मौजूदगी हमें चौंकाती नहीं है। इन नई स्थितियों के चलते घरों में भी स्त्री की हैसियत में कुछ सुधार हुआ है। देवी के शास्त्रोक्त दर्जे से भले ही वह नीचे उतार दी गई हो पर व्यक्ति के रूप में उसके व्यक्तित्व में पहले की तुलना में निखार आया है और व्यावहारिक रूप में वह अधिक आभावान बनी है। यह तो हुआ महिलाओं की स्थिति का शुक्ल पक्ष, लेकिन स्थिति का कृष्ण पक्ष ज्यादा गौरतलब और चिंता पैदा करने वाला है। देश या कि समाज जैसे-जैसे विकसित हो रहा है, महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों का ग्राफ भी बढ़ता जा रहा है। कोई दिन ऐसा नहीं बीतता जब देश के किसी न किसी गाँव-कस्बे या शहर से किसी लड़की से छेड़छाड़, उसके अपहरण, बलात्कार या हत्या की खबरें न आती हों। महिलाओं के साथ आपराधिक वारदातें सिर्फ घरों के बाहर सार्वजनिक स्थानों पर या बसों व रेलगाड़ियों में ही नहीं, बल्कि घरों के भीतर भी कम नहीं होतीं। कहीं वे पति के द्वारा, तो कहीं परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न का शिकार होती हैैं। कुल मिलाकर महिलाओं के प्रति होने वाले अपराध हमारे जीवन का एक आम हिस्सा हो गए हैं। लेकिन जितनी स्त्रियाँ बलात्कार, दहेज और अन्य मानसिक व शारीरिक अत्याचारों से सताई जाती हैं, उनसे कई सौ गुना ज्यादा तो जन्म लेने से पहले ही मार दी जाती हैं। वाणी और विचार में स्त्री को देवी का दर्जा देने वाले किंतु व्यवहार में उसके प्रति हर स्तर पर घोर भेदभाव बरतने और उस पर अमानुषिक अत्याचार करने वाले हमारे समाज की आधुनिक तकनीक के सहारे की जाने वाली यह चरम बर्बरता है। इसी बर्बरता से उभरकर आता है तस्वीर का एक और भयावह पहलू और वह है लिंगानुपात में लगातार बढ़ती असमानता। वर्ष १९०१ में हुई जनगणना में प्रति हजार पुरुषों पर ९७२ स्त्रियाँ थीं, जो घटते-घटते १९९१ तक ९२७ पर पहुँच गई। यह एक चिंताजनक आँकड़ा था। शायद इसी के बाद सरकार की आँखें खुलीं और उसने कन्या भू्रण हत्या के खिलाफ थोड़ी सख्ती दिखाई, जिसका नतीजा निकला कि २००१ की जनगणना में यह आँकड़ा ९३३ पर पहुँचा, लेकिन यह भी कोई संतोषजनक स्थिति नहीं कही जा सकती है। यह एक अद्भुत बात है कि आज जहाँ हमारे देश में गोहत्या को लेकर दंगे शुरू हो जाते हैं, वहीं कन्या भ्रूण हत्या को सिर्फ एक आर्थिक और सामाजिक मजबूरी ही समझा जाता है। स्त्रियों का महत्व और सम्मान आज के समाज में क्या एक जानवर से भी कम हो गया है? हमारे समाज में औद्योगिक विकास और शिक्षा के काफी प्रचार-प्रसार के बावजूद आमतौर पर महिलाओं की जो स्थिति है, वैसी स्थिति तो प्राचीनकाल में भी नहीं थी। "स्त्री हि ब्रह्मा वभूविथ" - यह वेद वाक्य ऋ ग्वेद का है। इसमें स्त्री को ब्रह्मा का दर्जा दिया गया है। वैदिक व्यवस्था में महिलाओं को सभी सामाजिक व धार्मिक कार्यों में पुरुषों के बराबर अधिकार और दायित्व हासिल थे। उस दौर में लड़कियाँ भी अपने भाइयों की तरह जनेऊ धारण करती थीं और उनके साथ विद्याध्ययन करती थीं। आज भी हम अपने व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में ५ हजार साल पुराने कई मंत्रों और आचारों का पालन करते हैं। लेकिन जहाँ महिलाओं को पुुरुषों को बराबर का दर्जा देने की बात कही गई थी, वे वाक्य और आचार धीरे-धीरे हमारे समाज की स्मृति से विलुप्त होते गए। आज महिलाएँ जिन दुश्वारियों का सामना कर रही हैं, उन्हें उनसे निजात तभी मिल सकती है जब सही अर्थों में उनका सशक्तिकरण हो। यों उनके सशक्त बनाने की दिशा में भारतीय शासन व्यवस्था का कानूनी पक्ष काफी उजला दिखाई देता है लेकिन हकीकत में ऐसा है नहीं।

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