कहने को तो ग्रामीण अंचल में आठ लाख छब्बीस हजार बस्तियों के बच्चों के लिए एक किलोमीटर के अंदर प्राथमिक स्कूल हैं और अपर प्राइमरी स्कूल तीन किलोमीटर के भीतर, लेकिन अधिकतर प्राइमरी स्कूल (७० प्रतिशत) एक कमरे में चल रहे हैं और इन स्कूलों में केवल एक या दो अध्यापक कार्यरत हैं। यह शिक्षा का माखौल नहीं तो और क्या है?
किसी भी देश का शैक्षणिक जीवन एक सतत धारा के अनुरूप है जिसमें भूत, वर्तमान और भविष्य को देखा जा सकता है, यह विचार डॉ. मैलकम अडिशेशय्या ने शिक्षा और राष्ट्रीय उत्थान के संदर्भ में व्यक्त किया। प्रथम शिक्षा आयोग १९६४-६६ से आज लगभग चार दशक से अधिक समय बीत गया और सरकारी आँकड़ों के अनुसार तो शिक्षा के प्रत्येक क्षेत्र व स्तर पर असामान्य सुधार हुआ है, परंतु वास्तविक रूप से अधिकतर ग्रामीण स्कूल अब भी बिना ब्लैक बोर्ड व चॉक के चल रहे हैं।
यूपीए-२ की सरकार के गठन के बाद प्रत्येक मंत्री इस होड़ में लगा कि सरकार के पहले सौ दिन में वह ऐसा कमाल कर दिखाए जो कभी देखा सुना न गया हो। मानव संसाधन मंत्री ने शिक्षा के मूलभूत अधिकार की बात कही और इस दिशा में समय बीतते एक विधेयक भी पास कराया। वस्तुतः बात कुछ नई न होते हुए भी इस प्रकार रखी गई कि लोग प्रभावित हुए। चलिए मान लें कि शिक्षा का अधिकार मिल गया पर शिक्षा कहाँ, कैसी और किस प्रकार की होनी चाहिए, इस प्रश्न का उत्तर अभी नहीं मिल पाया?
शिक्षा संस्थानों को सरकारी, कमेटी और कॉरपोरेशन, सरकार के सहयोग पर आधारित तथा गैर सरकारी स्कूलों में बाँटा जा सकता है। पब्लिक स्कूल को अभिभावक प्राथमिकता देते हैं। देश में पब्लिक स्कूल दो प्रकार के हैं, एक वे जो इंग्लैंड के प्रसिद्ध स्कूलों की परंपरा पर चलते हैं और दूसरे वे जो केवल नाम के पब्लिक स्कूल हैं। पहले प्रकार के पब्लिक स्कूलों में बच्चे का पूर्ण विकास हो पाता है पर दूसरे प्रकार के स्कूल शायद इसलिए प्राथमिकता में आते हैं कि इन स्कूलों की फीस अधिक होती है तथा सुविधाएँ भी सरकारी स्कूलों की तुलना में कुछ ज्यादा होती हैं। चूँकि यहाँ संपन्ना और ऊँचे पदों पर आसीन अफसरों के बच्चे पढ़ते हैं इसलिए उन बच्चों में आपसी मेलजोल के कारण जीवन में सफलता की मात्रा अधिक होती है। हालाँकि सरकार द्वारा चालित केंद्रीय विद्यालय व नवोदय विद्यालय भी टक्कर लेते हैं पर इनकी संख्या कुल स्कूलों के अनुपात में या यूँ कहिए कि विद्यार्थियों की आवश्यकता के हिसाब से नगण्य है। इन स्कूलों में दाखिले की कुछ शर्तें हैं जो सभी बच्चे पूरा नहीं कर पाते। इसके अलावा ये शिक्षा संस्थान बड़े व मध्यम श्रेणी के शहरों में हैं। शहरों में आम सरकारी व प्राइवेट स्कूल भी हैं, जिनमें अधिकतर बच्चे पढ़ते हैं। इनमें से कुछ स्कूलों के बच्चे बोर्ड में बहुत अच्छा प्रदर्शन कर पाते हैं।
कहने को तो ग्रामीण अंचल में आठ लाख छब्बीस हजार बस्तियों के बच्चों के लिए एक किलोमीटर के अंदर प्राथमिक स्कूल हैं और अपर प्राइमरी स्कूल तीन किलोमीटर के भीतर, लेकिन अधिकतर प्राइमरी स्कूल (७० प्रतिशत) एक कमरे में चल रहे हैं और इन स्कूलों में केवल एक या दो अध्यापक कार्यरत हैं। सुविधाओं के नाम पर पिछले ६० सालों में इन स्कूलों में छात्र व स्कूलों की संख्या के सिवा कुछ नहीं बढ़ा। लगभग ३० प्रतिशत स्कूलों में शिक्षकों की भारी कमी है। शहरी स्कूलों में अधिक अध्यापक हैं और ज्यों-ज्यों सुदूर क्षेत्रों में जाएँ रिक्त स्थान बढ़ते जाते हैं और यहाँ तक कि कुछ स्कूल बिना अध्यापक के भी हैं। ऐसी स्थिति में शिक्षा कैसी हो सकती है?
शिक्षाविदों के अनुसार प्रति अध्यापक पर १५ से २० को उत्तम माना गया है। भारत में प्रति अध्यापक तीस से पैंतीस छात्रों को सही माना जाता है परंतु स्कूलों में एक अध्यापक को पाँच कक्षाओं के २०० से २५० छात्रों को पढ़ाना होता है। एक विशेष बात यह भी है कि जनगणना से लेकर या किसी भी अन्य कार्य के लिए प्राइमरी स्कूल के अध्यापकों को ही लगाया जाता है। इन दिनों बच्चे क्या करते व पढ़ते होंगे, इसका अनुमान लगाना असंभव नहीं है और ऐसे में ३० से ४० प्रतिशत छात्रों का स्कूल छोड़ना स्वाभाविक है। शिक्षाविद व सरकारी लोग यह कहते आए हैं कि बच्चों का स्कूल छोड़ना आर्थिक व सामाजिक कारणों पर आधारित है, पर विचार करिए अच्छे से अच्छे स्कूल के छात्र को नर्सरी कक्षा से लेकर घर पर पढ़ाने को कहा जाता है। ज्यों-ज्यों छात्र बड़ी कक्षा में आता है, होमवर्क की मात्रा बढ़ती जाती है जो उसके माता-पिता को करवाना होता है। कभी-कभी माता-पिता बच्चे के लिए टयूशन लगा देते हैं और अध्यापक भी बच्चे को कुछ और होमवर्क दे जाता है। ऐसे में बच्चा किसी भी वयस्क व्यक्ति से अधिक कार्य करता है। सरकार ने आर्थिक रूप से कमजोर माता-पिता के बच्चों को पब्लिक स्कूलों में २५ प्रतिशत आरक्षण देने का प्रावधान किया है ताकि इन वर्ग के बच्चे अच्छी शिक्षा प्राप्त करे सकें। इससे यह बात तो स्पष्ट हो ही जाती है कि मानव संसाधन मंत्रालय मानता है कि सरकारी स्कूलों में अच्छी शिक्षा की सुविधा नहीं है और वहाँ शिक्षा का स्तर पब्लिक स्कूलों से कम है।
इस वर्ग के बच्चों को आरक्षण देने के पीछे एक विचार यह भी है कि बच्चों में सामाजिक विषमताएँ कम हो जाएँ, पर प्रश्न उठता है कि जिस छात्र के अभिभावक पढ़ने-लिखने में कमजोर या विषय से अनभिज्ञ हैं तो ऐसे विद्यार्थी को कौन शिक्षा देगा और वह अपने आपको अन्य बच्चों के बराबर कैसे कर पाएगा?
समस्या केवल पब्लिक स्कूल की नहीं बल्कि पूरी शिक्षा व्यवस्था की है जहाँ शिक्षा संस्थान व शिक्षा नीति दोनों में बदलाव की जरूरत दशकों से हैं और दुनिया के उन्नत देशों में बदलाव हुए भी हैं। उन देशों में बच्चों को घर पर ज्यादा नहीं पढ़ना पड़ता और उसे अपने भारी बस्ते को उठाकर नहीं चलना पड़ता। स्कूल का वातावरण उसे आकर्षित करता है इसलिए उसका मन पढ़ाई में लगता है, जबकि यहाँ अनपढ़ माता-पिता अपनी असमर्थता के कारण कभी-कभी तंग आकर बच्चे को पढ़ने से मना कर बैठते हैं। अनेक शिक्षा सुधारक इस बात को कह-कहकर थक गए पर शिक्षा संस्थान टस से मस न हुए।
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