जापान में भूकंप और सुनामी से मची भारी तबाही के बाद बड़ा सवाल यह है कि हमारा देश ऐसी प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए कितना तैयार है? प्राकृतिक आपदाओं खासतौर पर भूकंप से निपटने की ठोस योजनाओं के बावजूद जापान भूकंप और सुनामी से सहम गया। जापान में आए जलजले के कारण मारे गए या लापता लोगों की संख्या लगभग 15,000 हो गई है। यह संख्या अभी और बढ़ने की आशंका है। इस भयावह भूकंप की वजह से पृथ्वी अपनी धुरी से चार इंच खिसक गई। इसके साथ ही जापान का द्वीप भी अपने मूल स्थान से खिसक गया है। नासा के वैज्ञानिक रिचर्ड ग्रास के अनुसार भूकंप के झटके से पृथ्वी के अपनी धुरी पर चक्कर लगाने की गति 1.6 माइक्रोसेकेंड बढ़ गई। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि जापान में परमाणु रिसाव का संकट उभरता दिख रहा है। वहां परमाणु ऊर्जा संयंत्र के फटने से राष्ट्रव्यापी परमाणु ऊर्जा अलर्ट घोषित कर दिया गया है। जापान में परमाणु खतरे के चलते संपूर्ण विश्व के सामने यह सवाल भी खड़ा हो गया है कि क्या प्राकृतिक आपदाओं के समय विश्व के अन्य परमाणु संयंत्र सुरक्षित रह पाएंगे? ग्रीनपीस की परमाणु ऊर्जा से जुड़ी कार्यकर्ता करुणा रैना के अनुसार परमाणु ऊर्जा संयंत्रों पर हमेशा ही खतरा मंडराता रहता है। परमाणु ऊर्जा के अनेक फायदों के बावजूद इस दौर में भी परमाणु संयंत्रों से जुड़ी अनेक समस्याएं मंुह बाए खड़ी हैं। भूकंप और सुनामी के कारण जापान में परमाणु संयंत्रों में रिसाव से कई लोग विकिरण का शिकार हुए हैं। अस्सी के दशक में भारत के तारापुर परमाणु संयंत्र में भी अनेक कर्मचारी रेडियोधर्मिता का शिकार हो गए थे। उस समय इस संयंत्र ने रेडियोधर्मी प्रदूषण के कई रिकार्ड तोडे़ थे और 300 से ज्यादा लोगों में इस प्रदूषण का असर पांच रेम की सीमा से अधिक मात्रा में पाया गया था। कुछ वर्ष पूर्व खबर आई थी कि भाभा एटमिक रिसर्च सेंटर में भी भारी मात्रा में विकिरण मौजूद है। जिससे कई कर्मचारी प्रभावित हुए हैं। लापरवाही की हद यह है कि वहां अनेक टीएलडी (थर्मो ल्यूमिनिसेंट डोसीमीटर) तथा फिल्म बिल्ले भी गायब मिले। फिल्म के ये बिल्ले कर्मचारियों के विकिरण-सेवन को दर्ज करते हैं। पिछले दिनों कर्नाटक स्थित कैगा परमाणु संयंत्र में हुए रेडियोधर्मी विकिरण ने भी देश में स्थित परमाणु केंद्रों की सुरक्षा व्यवस्था पर सवाल खडे़ कर दिए थे। स्पष्ट है कि परमाणु संयंत्रों में कभी-कभी इस तरह की छेड़छाड़ और लापरवाही की घटनाएं होती रहती हैं। यही कारण है कि यहां तमाम दावों के बावजूद हमेशा विकिरण का खतरा बना रहता है। जब परमाणु संयंत्रों में छोटी-मोटी छेड़छाड़ या गड़बड़ी होने से ही हमें गंभीर परिणाम भुगतने पड़ते हैं तो प्राकृतिक आपदा के समय इनसे रिसने वाले विकिरण कितने घातक होंगे, इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। विश्व और भारत के पर्यावरणविद पहले ही परमाणु संयंत्रों के अस्तित्व पर सवाल उठा चुके हैं। कहीं हम विकास के नाम पर विनाश को दावत तो नहीं दे रहे हैं। पर्यावरणविद कई वषरें से बड़े बांधों का विरोध भी कर रहे हैं लेकिन हम बड़े बांधों के नाम पर जनता को विकास के सपने दिखा रहे हैं। जापान की त्रासदी से हमें सबक लेने की जरूरत है। यहां फिर वहीं सवाल है कि ऐसी प्राकृतिक आपदाओं के मद्देनजर हमारे बांध कितने सुरक्षित हैं? हम बडे़ से बडे़ बांध बनाने के लिए तैयार हैं लेकिन प्रकृति हमें बार-बार समझदारी विकसित करने का संकेत दे रही है। इतिहास साक्षी है कि संपूर्ण विश्व में बडे़ बांधों ने भारी तबाही मचाई है। दरअसल, हम विकास के नाम पर बार-बार प्रकृति को चुनौती देते रहते हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि हम और हमारा विज्ञान प्रकृति के सामने बौने ही हैं।
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