थॉमस प्रकरण के बाद संवैधानिक पदों पर होनी वाली राजनीतिक नियुक्तियों को लेकर हमारे देश में नए सिरे से बहस छिड़ती दिख रही है। अभी तक देश की जनता बहुत जागरूकता दिखाने की कोशिश नहीं करती थी, जिस कारण राजनेताओं की मनमानियों पर नियंत्रण लगने का भी सवाल नहीं उठता था। अब मीडिया, सिविल सोसायटी और तमाम समूहों व बुद्धिजीवियों की जागरूकता के कारण स्थिति बदली है और सरकार को अधिक जवाबदेह और जिम्मेदार होना पड़ रहा है। राजनीतिक नेता अब भी अपना काम निकालने के लिए कुछ नौकरशाहों के साथ गठजोड़ बनाकर अपना काम करते रहते हैं और देश को लूटते रहते हैं, लेकिन अब समय आ गया है बदलाव लाने के लिए मिलकर प्रयास किए जाएं। संवैधानिक पदों पर अयोग्य व्यक्तियों और संबंधित दल विशेष या व्यक्ति विशेष से लगाव रखने वाले लोगों को आने से दूर रखने के लिए अभी तक कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है और न ही यह साफ किया गया है कि इन पदों पर बैठने वाले व्यक्तियों की निश्चित योग्यता क्या होनी चाहिए। यदि कानून में सुधार करके यह प्रावधान ठीक कर दिया जाए कि किसी पद विशेष पर बैठने वाले व्यक्ति की एक निश्चित क्वॉलिफिकेशन होगी, जिसे सभी के द्वारा स्वीकार किया जाना अनिवार्य होगा तो राजनेता चाहकर भी अयोग्य या अपने लोगों को इन पदों पर नहीं ला पाएंगे। इस क्रम में यह बात भी सही है कि हमारा लोकतंत्र दिनोंदिन परिपक्व हो रहा है, लेकिन प्रशासनिक व राजनीतिक सिस्टम अभी भी पुराने ढर्रे पर चलता आ रहा है। इसमें सबसे बड़ी समस्या जवाबदेही की है। जब तक प्रशासन की जवाबदेही सुनिश्चित नहीं होगी, प्रशासकों से स्वयं ईमानदार होने या ऐसा बर्ताव करने की अपेक्षा करना व्यर्थ ही होगा। नियम-उपनियमों में उलझी प्रशासनिक व्यवस्था को इससे बाहर निकालकर आम जनता की समस्याओं से जोड़ना होगा और इसे संवेदनशील बनाना होगा। जब तक ऐसा कुछ नहीं किया जाता है, तब तक प्रशासनिक अधिकारियों और राजनेताओं के गठबंधन की आशंका को खत्म नहीं किया जा सकता। हमारे देश में भ्रष्टाचार आज हर स्तर पर और हर जगह देखने को मिल रहा है। ऐसा नहीं है कि यह कोई नई समस्या है, लेकिन इतना अवश्य है कि आज यह एक अनिवार्य और वैध बुराई का स्वरूप लेता जा रहा है। भ्रष्टाचारी खुद को नियमों और व्यवस्थाओं की आड़ में सही साबित करते रहते हैं और सवाल उठाने वाले कारण खोजते रहते हैं। सूचना का अधिकार कानून तो लागू हो गया है, लेकिन इसका उपयोग कितना किया जा रहा है या कितना हो पा रहा है, यह आज भी एक समस्या बना हुआ है। आज न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका सभी स्तरों पर भ्रष्टाचार का रोग फैला हुआ है। हद तो तब हो जाती है, जब जनता को न्याय दिलाने वाले प्रमुख संवैधानिक पदों पर भी ऐसे लोगों का कब्जा हो जाता है, जिनका दागदार कैरियर रहा है। ऐसे लोगों से न्याय पाने की अपेक्षा आखिर आम जनता किस तरह कर सकती है। मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद पर बैठे हमारे पूर्व मुख्य न्यायाधीश पर जब उंगलियां उठ रही हों तो यह प्रश्न और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि किस तरह इस बुराई को दूर किया जाए। भाई-भतीजावादा के कारण भ्रष्टाचार दिनोंदिन तेजी से बढ़ रही है। आज काले धन की समस्या की एक बड़ी वजह यह बुराई है। जब तक पूरे तंत्र को नियमबद्ध नहीं किया जाता है और आम लोगों के प्रति इसे जवाबदेह नहीं बनाया जाता है, तब तक इसे बुराईमुक्त भी नहीं किया जा सकता। केवल नियम बना देने भर से यह नहीं माना जा सकता है कि अब सब कुछ ठीक हो गया है और निश्चिंत हुआ जा सकता है। इसके लिए लोकतंत्र के पहरुओं को लगातार सक्रिय रहना होगा, जिसमें मीडिया और सिविल सोसायटी की एक महत्वपूर्ण भूमिका है। आज मीडिया काफी सक्रिय हुई है और सरकार के कामों पर अधिक सजगता से नजर रखती है। इसी का नतीजा है कि राष्ट्रमंडल, 2जी स्पेक्ट्रम, आदर्श सोसायटी जैसे घोटाले देश के सामने आ सके और थॉमस प्रकरण पर सरकार को झुकना पड़ा। भविष्य में इस तरह की नियुक्तियों को फिर न दोहराया जाए, इसके लिए नए सिरे से विचार करने की जरूरत है। आखिर एक भ्रष्टाचारी व्यक्ति को भ्रष्टाचार की जांच करने का अधिकार कैसे मिल सकता है। इस तरह तो इन संस्थाओं के गठित करने की मूल मान्यता पर ही चोट पहुंचेगी।
No comments:
Post a Comment