सीवीसी जैसे पदों पर नियुक्ति की प्रक्रिया के संदर्भ में यह सुझाव दे रहे हैं
पीजे थॉमस ने सीवीसी पद से जाते- जाते सरकार और नौकरशाहों के बीच के संबंधों और एक-दूसरे से लाभ लेने और देने के मामलों का विवादित पिटारा खोल दिया। सुप्रीम कोर्ट ने नियुक्ति पर तीखी आपत्ति जताते हुए पूरी प्रक्रिया पर सवाल खड़ा कर दिया है। रियाटरमेंट के बाद की नियुक्ति, बड़े सरकारी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई से पहले अनुमति जैसे कई प्रावधान भी हैं जो परोक्ष रूप से थॉमस जैसे प्रकरणों को बढ़ावा देते हैं। इससे चिंतित वरिष्ठ नौकरशाह और राज्यसभा के पूर्व महासचिव योगेंद्र नारायण का मानना है कि अब वक्त आ गया है जब नियुक्ति की प्रक्रिया पर खुल कर चर्चा हो और सार्थक बदलाव हों। दैनिक जागरण के विशेष संवाददाता आशुतोष झा से उनकी बातचीत के प्रमुख अंश : विवादों में रहे सीवीसी पीजे थॉमस की नियुक्ति को आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने गैर कानूनी करार दे दिया। इसका जिम्मेदार आप किसे मानते हैं? मेरी नजर में सबसे बड़ी गलती केंद्रीय कार्मिक विभाग की है। उसकी जिम्मेदारी थी कि थॉमस के खिलाफ विचाराधीन चार्जशीट की जानकारी समिति के समक्ष रखी जाती। आल इंडिया सर्विस आफिसर्स का पूरा बायोडाटा उसके पास होता है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि 2003-04 में कार्मिक विभाग की नोटिंग भी हो चुकी थी। कुछ नोटिंग तो ऐसी भी थी कि चार्जशीट पर आगे बढ़ने की अनुमति दे दी गई है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कार्मिक विभाग को जो करना चाहिए था वह नहीं किया गया। यह प्रक्रिया की गलती थी और उसके लिए कार्मिक विभाग जिम्मेदार था। हां, यह भी सच्चाई है कि नियुक्ति समिति ने पूरी गंभीरता से काम नहीं किया। आपको क्या लगता है कि समिति ने इतनी जल्दबाजी क्यों की? देखिए, मैं ठोस तौर पर कुछ नहीं सकता। प्रधानमंत्री समेत केंद्रीय गृहमंत्री और नेता प्रतिपक्ष इस समिति में होते हैं। नेता प्रतिपक्ष ने असहमति जताई थी। हो सकता है कि गठबंधन राजनीति की मजबूरी रही हो, पर मैं समझता हूं कि यह सिस्टम की असफलता है। अब जब पूरी बातें खुल गई हैं तो कानून में साफ तौर पर यह शामिल किया जाना चाहिए कि सीवीसी के पद पर ऐसे किसी व्यक्ति की नियुक्ति नहीं हो सकती है जिसके खिलाफ चार्जशीट लंबित भी है। नियुक्ति के प्रावधान और कानून पर विस्तार से चर्चा होनी चाहिए। क्या सीवीसी जैसे पदों पर नियुक्ति के लिए समिति में एकमत का प्रावधान जरूरी है? सुप्रीम कोर्ट ने इस पर भी विचार किया है और कहा है कि वीटो पावर किसी के पास नहीं होना चाहिए। मैं भी इससे सहमत हूं। हमेशा एकमत होना संभव भी नहीं है। हां, सर्वसम्मति जरूर होनी चाहिए। थॉमस के मामले में हालांकि वह भी गलत साबित हुआ। लिहाजा ऐसी प्रक्रिया होनी चाहिए कि पहले कुछ नामों पर एकमत निर्णय लिया जाए और फिर उन नामों में से कोई एक नाम सर्वसम्मति से तय किया जाए। आखिरकार बहुमत तो सरकार का ही होता है। क्या आपको लगता है कि थॉमस जैसे मामलों में आइएएस अधिकारियों के मूल काडर के राज्य भी दोषी होते हैं। आइएएस की नियुक्ति तो केंद्र सरकार करती है और उसके पास संबंधित व्यक्ति की पूरी जानकारी होती है। लिहाजा राज्य सरकार पर दोष डालना सही नहीं होगा। सुप्रीमकोर्ट ने परोक्ष रूप से सीवीसी के लिए सिर्फ नौकरशाह के चुने जाने पर असहमति जताई है। मेरा तो मानना है कि चुनाव आयोग की तरह ही सीवीसी भी एक मल्टीफंक्शनल बाडी हो, जहां अलग अलग सेवा से लोग आएं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सार्वजनिक क्षेत्रों से भी लोगों को लिया जाना चाहिए। मेरी राय में इसमें कोई आपत्ति नहीं है। किसी भी शिकायत पर अच्छी जांच वही कर सकता है जिसके पास उस क्षेत्र का अनुभव हो। अगर टेलीकाम का मामला है तो वह आदमी क्या करेगा जिसे स्पेक्ट्रम की जानकारी नहीं है। जो जिस क्षेत्र का अनुभवी है वही अच्छी जांच कर सकता है। कानून का मामला है तो बार एसोसिएशन है। सिविल सेवा है तो उसके सीनियर हों। मैं आपके मुद्दे से थोड़ा भटका रहा हूं, लेकिन बताऊं कि सिंगल प्वाइंट डायरेक्टिव है कि संयुक्त सचिव से ऊपर के किसी भी व्यक्ति पर मामला चलाने से पहले सरकार से अनुमति लेनी होती है। उसका एक तार्किक आधार था। जनता सरकार में दो सचिवों के कार्यालयों पर सीबीआइ ने रेड कर दी थी। उसकी जानकारी कैबिनेट सचिव तक को नहीं थी। बताइए कि यह सही था क्या। क्या इस अनुमति के प्रावधान की आड़ में भ्रष्टाचार को बढ़ावा नहीं मिलता है? अच्छा हो कि ऐसी अनुमति देने के लिए स्वतंत्र अथारिटी बने। सीवीसी अभी कानूनी बाडी है। उसे संवैधानिक बाडी बना दिया जाए और उसी के जरिए अनुमति दी जाए ताकि किसी भी मामले को छिपाने के लिए दबाव नहीं बनाया जा सके। सुप्रीम कोर्ट ने इंटीग्रिटी कमीशन बनाने की बात कही है। मैं उससे पूरी तरह सहमत हूं। यह केवल नौकरशाही की बात नहीं है। न्यायपालिका में भी ऐसा होता है। जस्टिस निर्मल यादव के मामले में जितनी देरी हुई उसे हम सभी जानते हैं। पंद्रह महीने बाद न्यायपालिका से अनुमति मिली। लिहाजा ऐसी एक संस्था की जरूरत है जो हर मामले पर स्वतंत्र रूप से विचार करे और किसी भी शिकायत पर कार्रवाई की अनुमति देने के लिए स्वतंत्र हो। कई अर्द्ध न्यायिक निकाय हैं जिनका बड़ा अधिकार होता है। मसलन टेलीकाम रेगुलेटरी अथारिटी। क्या इसमें नियुक्ति के तौर तरीके से आप सहमत हैं? मैं आपसे सहमत हूं। रेगुलेटरी संस्थाओं का सार है कि वह स्वतंत्र फैसला लें। पश्चिम की तर्ज पर हमने इन संस्थाओं को अपना तो लिया, लेकिन ऐसे लोगों की भर्ती नहीं कर पाए जो किसी भी दल, विचार, और वाद से मुक्त हों। समाज में दो भाग हैं। एक सरकार और दूसरा सिविल सोसाइटी। ये संस्थाएं सिविल सोसाइटी का प्रतिनिधित्व करती हैं, लेकिन सच्चाई कई बार बिल्कुल अलग होती है। रिटायरमेंट के बाद नियुक्ति का सिलसिला लंबे समय से चल रहा है। क्या यह भ्रष्टाचार को बढ़ावा नहीं देता? समाज को हमेशा अनुभवी आदमी की जरूरत होती है। पोस्ट रिटायरमेंट जॉब में खराबी नहीं है। देखना यह है कि जिसकी नियुक्ति हो रही है वह सही है या नहीं। कई मामलों में यह चलन भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है, लेकिन सारे विवाद खत्म हो जाएं अगर इन नियुक्तियों के लिए भी अलग से राजनीतिक दलों को शामिल करते हुए एक समिति बने। नियुक्ति का एकाधिकार सरकार के पास नहीं होना चाहिए। कुछ राजनीतिक दलों की समिति होनी चाहिए। सभी नामों पर वहीं विचार होना चाहिए। सबसे बड़ा फायदा तो यह होगा कि सरकार एकाधिकारी रूप से किसी खास व्यक्ति को लाभ पहुंचाने की स्थिति में नहीं होगी।
No comments:
Post a Comment