अभिव्यक्ति की आजादी पर चोट

एनसीईआरटी की ग्यारहवीं कक्षा की पुस्तक में डॉ. अंबेडकर के कार्टून को लेकर संसद में मचा बवाल इस बात का प्रमाण है कि देश के राजनीतिज्ञ असहिष्णु राजनीति का केंचुल उतार फेंकने को तैयार नहीं हैं। इस घटना से यह भी पता चलता है कि सांसदगण ऐसे ही जज्बाती मुद्दों की तलाश में रहते हैं ताकि उन्हें राजनीतिक लाभ मिल सके। एनसीईआरटी की किताब में छपा कार्टून कोई नया नहीं है, क्योंकि इसे 1949 में मशहूर कार्टूनिस्ट केशव शंकर पिल्लै ने बनाया था। वर्ष 2006 में इस कार्टून को एनसीईआरटी की पुस्तक में प्रकाशित किया गया। कार्टून में डॉ. अंबेडकर को घोंघे पर बैठा दिखाया गया है और उनके पीछे पंडित जवाहरलाल नेहरू चाबुक चलाने की भावभंगिमा में खड़े हैं। आश्चर्य है कि कार्टून पर सियासतदानों की निगाह छह वर्ष बाद पड़ी। क्या सचमुच उन्हें अभी तक इस बात की जानकारी नहीं थी या कि वे वितंडा खड़ा करने के लिए किसी विशेष मुहूर्त का इंतजार कर रहे थे? सच जो भी हो, लेकिन कार्टून पर सियासी बवाल उनकी संकीर्ण मानसिकता को ही उजागर करता है। आश्चर्य यह भी है कि जिस कार्टून का खुद अंबेडकर ने विरोध नहीं किया उसकी एकांगी व्याख्या की जा रही है। कुछ लोगों का तर्क है कि संविधान निर्माण में हुई देरी को लेकर पंडित नेहरु अंबेडकर से नाराज थे। वह चाहते थे कि अंबेडकर जल्द से जल्द संविधान का निर्माण करें। बावजूद इसके संविधान पूरा होने में 2 वर्ष, 11 माह 18 दिन लग गए। तर्क दिया जा रहा है कि पंडित नेहरू की नाराजगी को ध्यान में रखकर कार्टूनिस्ट शंकर ने यह कार्टून बनाया था। हालांकि यह कार्टून एक कार्टूनिस्ट की कल्पना भी हो सकती है। यह जरूरी नहीं कि हर कल्पना सच्चाई के निकट ही हो। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि कार्टून में पंडित नेहरू और डॉ. अंबेडकर दोनों के हाथ में चाबुक है। अगर सचमुच पंडित नेहरू अंबेडकर पर ही चाबुक तान रखे हैं तो फिर कार्टूनिस्ट को अंबेडकर के हाथ में चाबुक दिखाने की क्या जरूरत थी? जहां तक संवैधानिक मसलों को लेकर पंडित नेहरू और डॉ. अंबेडकर के बीच मतभेद का सवाल है तो इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। उस समय संविधान निर्माण समिति के अन्य सदस्यों के बीच भी संवैधानिक मसलों को लेकर एकराय नहीं थी। लंबी बहस के बाद ही अंतिम निष्कर्ष पर सभी सहमत हुए थे। इसलिए वैचारिक मतभेदों को एक कार्टून से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। अगर खुली आंखों से देखा जाए तो कार्टून में पंडित नेहरू और डॉ. अंबेडकर दोनों ही उस घोंघे पर चाबुक तान रखे हैं जिसकी चाल अत्यंत धीमी है। हो सकता है कि कार्टूनिस्ट के लिए उस कार्टून का मतलब कुछ रहा हो, लेकिन दुर्भाग्य से कुछ सियासतदान इसे आधार बनाकर राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं। कार्टून अभिव्यक्ति की एक विधा है जिसकी व्याख्या अनगिनत दृष्टिकोण से की जा सकती है। साठ के दशक में समाजवादी नेता अशोक मेहता को एक कार्टून में कांग्रेस दफ्तर में झाडू लगाते दिखाया गया है। इस तरह के न जाने कितने कार्टून इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं, लेकिन उसे लेकर कभी भी ऐसा राजनीतिक वितंडा नहीं खड़ा किया गया फिर इस कार्टून को अनावश्यक क्यों घसीटा जा रहा है? आज भी प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में नेताओं और महत्वपूर्ण व्यक्तियों का कार्टून बनता रहता है। अगर इसे लेकर भी बखेड़ा किया जाए तो क्या अभिव्यक्ति की आजादी का हनन नहीं होगा। पर देश के सियासतदानों को यह बात समझ में नहीं आ रही है। पिछले दिनों मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के एक कार्टून पर जिस तरह पश्चिम बंगाल सरकार ने कठोर आचरण का प्रदर्शन किया उसकी खूब भ‌र्त्सना हुई। कार्टूनों का सम्मान होना चाहिए। इस विधा का उद्देश्य किसी का अपमान करना नहीं, बल्कि प्रभावी तरीके से अपनी बात को जनमानस तक पहुंचाना होता है। सर्वोच्च पंचायत के माननीय सदस्यगण कार्टून को विधा के रूप में लेने की बजाय उसे राजनीतिक हथियार बनाने पर आमादा हैं। शंकर के कार्टून को पाठ्यपुस्तकों में शामिल करना चाहिए या नहीं, यह बहस का विषय हो सकता है। सबसे बड़ा आश्चर्य यह कि मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने आनन-फानन में न केवल कार्टून के अंश को हटाने की घोषणा कर दी, बल्कि आश्चर्यजनक रूप से माफी भी मांग लिया। बेहतर होता कि सरकार इस प्रकरण पर हड़बड़ी दिखाने की बजाय जांच समिति का गठन करती और उसके निष्कर्षो काइंतजार करती।कार्टूनों पर बेवजह की सियासतसंसद के साठ साल पूरे होने के दिन दिए साक्षात्कार में पहली संसद के सदस्य रहे और मौजूदा राज्यसभा में भी बतौर सदस्य रिशांग कीशिंग ने जो सबसे महत्वपूर्ण बात कही वह यह कि पहले संसद में जनता के लिए मुद्दे उठाए जाते थे, लेकिन अब मुद्दे दलगत और राजनीतिक नफा-नुकसान के लिए उठाए जाते हैं। जाहिर है एनसीईआरटी की किताब में छपे संविधान निर्माता बाबा साहब भीमराव अंबेडकर से जुडे कार्टून का मसला भी रिशांग किशिंग की चिंता में देखी जा सकती है। दिलचस्प यह है कि जिस कार्टून को लेकर विवाद खड़ा हुआ उसे शंकर जैसे मशहूर कार्टूनिस्ट ने बनाया है। 1961 में बनाए गए इस कार्टून को लेकर पता नहीं तब अंबेडकर या नेहरू ने कैसी प्रतिक्रिया दी होगी, लेकिन एनसीईआरटी की किताब में प्रकाशित हुए इस कार्टून को लेकर दलितों की राजनीति करने वाले बहुजन समाज पार्टी जैसे दलों का मानना कुछ और ही है। इन राजनीतिक दलों को लगता है कि ऐसे कार्टून को पाठ्यक्रम में शामिल किए जाने से बाबा साहब अंबेडकर को लेकर छात्रों के मन में गलत संदेश जाएगा। राजनीतिक दलों के इस तर्क की मीमांसा से पहले यह जान लेना दिलचस्प यह है कि इस तर्क से एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक रहे जगमोहन सिंह राजपूत सहमत नजर आ रहे हैं। उनका कहना है कि पाठ्यक्रम में पढ़े पाठ और चित्र पूरी जिंदगी तक याद रहते हैं। लिहाजा ऐसे कार्टून पाठ्यक्रम में नहीं होने चाहिए। यह सच है कि छुटपन में पढ़ी गई किताबों के पाठ पूरी जिंदगी अमिट लकीर की तरह प्रभाव छोड़ते हैं, लेकिन क्या हम यह कह सकते हैं कि ग्यारहवीं और बारहवीं का छात्र भी अपनी किताबों और उसमें छपे पाठों के लिए धार्मिक पुस्तकों जैसा श्रद्धाभाव रखता है। अगर आप यह मान लेते हैं तो निश्चित तौर पर आज के दौर में पढ़ने वाले ग्यारहवीं और बारहवीं के छात्रों की बुद्धि और परिपक्वता की ओर बढ़ते कदम को आप नजरंदाज कर रहे होते हैं। आज ग्यारहवीं या बारहवीं में पढ़ रहे छात्र की उम्र सत्रह साल से कम नहीं होती है और सूचना क्रांति के दौर में यह मानने का कोई कारण नहीं है कि ग्यारहवीं-बारहवीं में पढ़ने वाला आज का छात्र बुद्धिहीन और तर्कहीन है। शंकर द्वारा बनाए गए इस कार्टून को लेकर संसद में चाहे जितनी भी बहस हुई और सवाल उठाए, लेकिन उसमें इस तथ्य को पूरी तरह नजरंदाज किया गया। सबसे ज्यादा दिलचस्प रहा मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल का अंदाज। उन्होंने बिना देर किए इस कार्टून के लिए माफी भी मांग ली। बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के देशव्यापी आंदोलन के सामने देर तक सीना ताने खड़े रहे कपिल सिब्बल के इस अंदाज से कम से कम देश के उस वर्ग को तकलीफ जरूर हुई है जो पाठ्यक्रम और उससी जुड़ी चीजों से सरोकार रखता है और उन्हें राजनीति से अलग रखने की हिमायत करता है। कार्टून के बारे में पत्रकारिता के छात्रों को पढ़ाया जाता रहा है कि एक कार्टून हजार शब्दों पर भारी पड़ता है। उसका चुटीलापन और व्यंग्य दरअसल अभिव्यक्त भावनाओं को सही तरीके से मर्म तक पहुंचाने में कामयाब रहता है। शायद यही वजह है कि एनसीईआरटी की राजनीति विज्ञान की पुस्तकों के लिए सलाहकार की भूमिका निभा चुके योगेंद्र यादव इस्तीफा देने के बाद भी अपनी इस बात पर अटल हैं कि एनसीईआरटी की किताबें नए तरीके से लिखी जा रही हैं। ऐसा इसलिए ताकि छात्रों को नई दिशा तो मिले ही साथ ही अपने विषय के प्रति उन्हें सोचने के लिए एक नया नजरिया भी मिले। सबसे बड़ी बात यह है कि भारत का जो मौजूदा राजनीतिक तंत्र है, उसमें वोट बैंक की तरह स्वीकार किए जा चुके वर्गो के हितों के नाम पर राजनीतिक भेड़चाल को बढ़ावा मिल रहा है। दिलचस्प यह है कि दलितों के सम्मान के नाम पर इस मसले को बीएसपी जैसे दलों ने उठाया और दलित मतों के लालच में कांग्रेस ने भी इसे लपक लिया। इस बारे में कांग्रेस की राज्यसभा सदस्य प्रभा ठाकुर ने तर्क दिया कि अगर यही कार्टून समाचार पत्र में छपे तो ठीक, लेकिन पाठ्यक्रम में शामिल हो तो गलत, आखिर ऐसा क्यों? अब उन्हें यहां कौन समझाए कि सूचना क्रांति के इस दौर में आज के छात्रों को दायरे में बांध पाना संभव नहीं है, लेकिन कांग्रेस को लगता है कि अगर यह मसला उठा तो दलित मतदाता उससे बिदक जाएगा। शायद यही कारण था उसने भी मुद्दे को लपकना बेहतर समझा। कांग्रेस के ही एक प्रमुख सांसद पीएल पुनिया तो इसके लिए अपनी ही सरकार पर सवाल उठाने से नहीं हिचके? यह कोई पहला मौका नहीं है जब दलित मतदाताओं को लुभाने के लिए पाठ्यक्रम या किसी किताब को निशाना बनाया गया है। इसके पहले प्रेमचंद के उपन्यास रंगभूमि को सवर्ण मानसिकता की किताब बताते हुए उत्तर प्रदेश में जगह-जगह जलाया गया। रोहिंग्टन मिस्त्री के उपन्यास सच ए लांग जर्नी को मुंबई विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से इसलिए हटाया गया, क्योंकि वह पारसी समुदाय की गरीबी और दर्द का मजाक बनाता था। दिलचस्प यह भी है कि पारसियों का अपना खास वोट बैंक नहीं है। इसके बावजूद इस विरोध को हाथों-हाथ लिया गया, क्योंकि इस विरोध में अल्पसंख्यकवाद को पोसने वाली प्रगतिशील राजनीति का बोध होता है। दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास के पाठ्यक्रम से रामानुजम के लेख-थ्री हंड्रेड रामायनाज के हटाने की वजह भी सियासी फायदा उठाना था और विरोध का कारण भी राजनीति मुनाफा कमाना था। राजग के शासन काल में तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने वैदिक गणित को हाईस्कूल-इंटरमीडिएट के पाठ्यक्रम में लागू किया तो प्रगतिशील तबके की तरफ से उसका जोरदार विरोध हुआ। इसे प्रगतिविरोधी और पोंगापंथी बताने की पुरजोर कोशिश हुई। बाद में जब अर्जुन सिंह मानव संसाधन विकास मंत्री बने तो इसे पाठ्यक्रम से हटा दिया गया। राजनीतिक नफा-नुकसान के नजरिए से होने वाले पाठ्यक्रम विरोधी और समर्थक आंदोलनों का आमतौर पर कोई बौद्धिक या तार्किक आधार नहीं होता। शायद यही वजह है कि जब विपरीत विचारधारा की सरकारें आने के बाद या फिर राजनीतिक विरोध के चलते विवादास्पद हिस्से या पुस्तक को पाठ्यक्रम से हटाया जाता है तो उसका भी कोई तार्किक आधार नहीं देखा जाता। एक तथ्य और गौर करने लायक है। सबसे ज्यादा विवाद सरकारी पाठ्यक्रमों पर ही होते हैं, लेकिन विरोध करने वाले भूल जाते हैं कि शिक्षा के इस दौर में ढेरों ऐसी किताबें हैं जिसमें तमाम तरह की अशुद्धियां हैं और विवाद वाले विषयों से कहीं ज्यादा विवादास्पद सामग्री उनमें दी गई होती है। निजी शैक्षिक संस्थानों और स्कूलों में ऐसी किताबें जोर-शोर से पढ़ाई भी जा रही हैं, लेकिन उनकी तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता। उन पर ऐसे सवाल भी नहीं उछाले जाते। क्या ऐसे पाठ्यक्रम विषैले नहीं होते हैं? यदि इन पर सवाल उठाने से कोई राजनीतिक नफा-नुकसान नहीं होता तो उन्हें नजरंदाज कर

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