कैसा हो राष्ट्रपति!

राष्ट्र बेहद नाजुक दौर से गुजर रहा है। वैसे कोई दौर ऐसा नहीं होता, जब हमारा राष्ट्र नाजुक दौर में नहीं होता। हमारे राष्ट्र के लिए हर दौर नाजुक रहा है। खैर, नाजुकता के तमाम आर्थिक, सामाजिक, सामरिक, भौगोलिक, प्राकृतिक, मानसिक, शारीरिक कारणों के साथ इस समय एक नाजुक कारण ये भी है कि राष्ट्र को अपना नया पति चुनना है। देश के भविष्य के लिए सतत चिंतनशील रहने वाले नेताओं और उनकी पार्टियों को अब ये चिंता सता रही है कि वो राष्ट्र का हाथ किसके हाथ में सौंपे। नेतागण इतने चिंतित हैं कि कुछ सोच नहीं पा रहे हैं कि इस नाजुक दौर में राष्ट्र का पति किसे बनाया जाए। दरअसल ज्यादा सोचते-सोचते सोच भी काम करना बंद कर देती है। इसलिए पार्टियों के बीच से विरोधाभासी बयान निकल-निकल कर आ रहे हैं। ये बयान आ रहे हैं या निकलवाए जा रहे हैं ये तो मीडिया ही बता सकता है, क्योंकि कोई राष्ट्रीय विषय हो और मीडिया उसमें टांग न अड़ाए तो वह विषय ही कैसा। अब संविधान ने मीडिया को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में कोई लिखित स्थान तो दिया नहीं है। वह तो भला हो हमारे राजनीतिक विज्ञानियों और नेताओं का कि वे खुलकर मानते हैं कि मीडिया चौथा स्तंभ है, लेकिन मीडिया के कलेजे को केवल मानने से ठंडक नहीं मिलती। इसलिए मीडिया हर चीज में समय से पहले और जरूरत से ज्यादा टांग घुसेड़ता है, केवल ये जताने के लिए कि भई हम भी हैं। या यूं कहें कि लोकतंत्र के बाकी के तीन स्तंभों से मीडिया चुन-चुनकर बदला लेने की कोशिश करता है कि तुमको संविधान के अंदर लिखित में जगह मिली और हमें मौखिक-मौखिक बहला दिए। सो, राष्ट्र के पति को चुनना है अगस्त में, मीडिया भौंपू बजा रहा अप्रैल में। राष्ट्र का पति तो हमारे नेतागण आम सहमति से, सबके सम्मान का ख्याल रखते हुए तब भी चुनते थे जब मीडिया के नाम पर एक दो सरकारी भोंपू और 20-25 निजी समाचार पत्र होते थे। हमारे नेताओं को अपने कर्तव्यों का अच्छी तरह भान था, है और रहेगा। आपस में कितना भी लड़-झगड़ लें, लेकिन एक दिन के लिए भी राष्ट्र को बिना पति के नहीं रहने देंगे। उचित समय आने पर आम सहमति भी बन जाएगी और नाम की घोषणा भी हो जाएगी, लेकिन अब मीडिया का दौर है हर काम को ग्रैंड बनाना जरूरी है। तो जी हर रोज टीवी चैनलों पर नए नाम को लेकर बहस।

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