मेरे एक लेखक मित्र हैं, उनका शाश्वत रूप से यह कहना है कि पतंग व्यंग्य का विषय नहीं है, इसलिए मुझे पतंग पर व्यंग्य नहीं लिखना चाहिए। इसके उत्तर में मेरा कहना है कि जब पतंगबाजी होती है और पतंगबाज अपने पैंतरों से इस खेल को अंजाम देते हैं तो व्यंग्य निकलने की पूरी संभावना बनी रहती है। अब यह अलग है कि कोई व्यंग्यकार पतंगबाजी से चिढ़ा बैठा हो और वह इस पर व्यंग्य लिखे ही नहीं और यूँ मेरे विचार से कोई किसी से चिढ़ा बैठा हो तो उस पर व्यंग्य अवश्य लिखना चाहिए, क्योंकि उस स्थिति में व्यंग्य आसानी से निकल भी आता है। मैं पतंगबाजों से पूरी सिंपैथी रखकर भी जब व्यंग्य खोज लेता हूँ तो चिढ़े हुए व्यंग्यकार को तो कोई कठिनाई होनी ही नहीं चाहिए।
इधर राजनीति को ही ले लीजिए, यह पतंगबाजी का खेल हो गई है। जिसके जैसा पेच हाथ लग रहा है, वह वैसा ही पेच लड़ा रहा है। इस पेचबाजी में जिसकी पतंग कट जाती है, वही हारे हुए जुआरी सा मुँह बनाकर बैठ जाता है। वैसे यह समय तो ऐसा आ गया है, जब हर किसी की पतंग कट रही है। पतंग कटेगी तो लूट-खसोट मचनी स्वाभाविक भी है। शोर-शराबा भी होगा। संसद का आलम तो और भी टेढ़ा है और सत्ता के गलियारों की दुनिया भी न्यारी है। इस समय जो पतंगबाजी चल रही है, वह खेल एकदम नया और मौलिक है।
खैर, जब ये बातें चल रही थीं, उसी समय मेरे पास वे व्यंग्यकार मित्र आ गए जो पतंगबाजी पर व्यंग्य लिखने को नकार रहे थे। मैंने ही कहा-"कहो कैसी रही, देख लिया न वो काटा का शोर, क्या अब भी कोई संशय है तुम्हें कि पतंगबाजी व्यंग्य का विषय नहीं है?"
आँखें झुकाए मंद स्वर में बोले-"शर्माजी गजब हो गया। गलती मुझसे हुई जो मैंने आज तक पतंग पर व्यंग्य नहीं लिखा ? मैंने पतंग को सदैव उपेक्षा से देखा। वरना इसकी रोचकता में तो गहरा दंश छिपा है। यह बच्चों को खेल नहीं, समझदार लोगों की बाजी है, जो चलना जानता है, वही सामने वाले को मात दे सकता है।"
मेरी बात पर मित्र बोले-"लेकिन अब क्या होगा, मेरा मतलब कटी पतंगों की बात छोड़िए। मुद्दा भ्रष्टाचार का है। क्या अब भ्रष्टाचार मिट जाएगा ?"
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