यह सचमुच राष्ट्रीय शर्म का विषय है कि दुनिया की दूसरी सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था वाले देश में 42 फीसदी बच्चों का वजन सामान्य से कम है। कुपोषित बच्चों की यह संख्या तब और शर्मनाक नजर आने लगती है कि जब इस आंकड़े की व्याख्या इस रूप में की जाती है कि दुनिया के हर तीन कुपोषित बच्चों में एक भारतीय है। इससे संतुष्ट होने का कोई मतलब नहीं कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भूख और कुपोषण की स्थिति पर एक रपट जारी करते हुए यह कहा कि तेजी से प्रगति कर रहे देश के लिए पोषण का स्तर सामान्य से कहीं अधिक कम होना अस्वीकार्य है। किसी भी समस्या को गंभीर बताने मात्र से उसका निदान होने वाला नहीं है और यह एक नहीं अनेक मामलों में साबित भी हो चुका है। अब जब खुद प्रधानमंत्री ने यह स्वीकार कर लिया है कि कुपोषण की समस्या के समाधान में एकीकृत बाल विकास योजनाओं पर निर्भर नहीं रहा जा सकता तब फिर यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि सरकार क्या नए कदम उठाने जा रही है? सरकार को कुपोषण से लड़ने के लिए कुछ नए और ठोस कदम उठाने ही होंगे, क्योंकि एकीकृत बाल विकास योजनाएं कुपोषण में सिर्फ 2.7 फीसदी की औसत वार्षिक दर से गिरावट ला पा रही है। पिछले सात वर्षो में कुपोषित बच्चों के प्रतिशत में केवल 11 प्रतिशत की कमी यह बताती है कि इस समस्या से निपटने के जैसे उपाय किए जाने चाहिए वे अपर्याप्त हैं। बेहतर होता कि भारत सरकार इस समस्या को लेकर पहले ही चेत जाती, क्योंकि संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास सूचकांक रपट लगातार यह कह रही है कि भारत में बच्चों और महिलाओं में कुपोषण की स्थिति अनेक निर्धन अफ्रीकी देशों से भी गई बीती है। यह अच्छी बात है कि किसी भारतीय संस्थान की ओर से भूख और कुपोषण की स्थिति सामने लाए जाने पर प्रधानमंत्री ने चिंता प्रकट की, लेकिन जब तक राज्य सरकारें इस समस्या के समाधान के संदर्भ में अपने दायित्वों के प्रति नहीं चेततीं तब तक बात बनने वाली नहीं है। सच तो यह है कि कुपोषण की शर्मनाक स्थिति का सामना करने के लिए राज्य सरकारों को कहीं अधिक सजगता और सक्रियता का परिचय देना होगा। यह उनके तंत्र के नष्ट-भ्रष्ट हो जाने का ही दुष्परिणाम है कि कुपोषण को दूर करने के लिए जो तमाम योजनाएं चलाई जा रही हैं वे अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतर पा रही हैं। केंद्र और राज्य सरकारों को एक ओर जहां सामाजिक उत्थान वाली अपनी योजनाओं के तंत्र को दुरुस्त करना होगा वहीं समाज में जागरूकता भी लानी होगी। निश्चित रूप से कुपोषण का मूल कारण निर्धन-वंचित तबकों के पास पोषण योग्य आहार की कमी तो है ही, इसके अतिरिक्त एक अन्य कारण सेहत के प्रति उनकी अज्ञानता भी है। यह भी एक विडंबना है कि एक ओर विभिन्न Fोतों से यह सामने आ रहा है कि देश में कुपोषण की स्थिति गंभीर बनी हुई है वहीं दूसरी ओर यह भी जगजाहिर है कि कभी भंडारण के अभाव में अनाज सड़ता है तो कभी आलू या अन्य सब्जियों को सड़कों पर फेंकने की नौबत आ जाती है। अभी हाल में पंजाब के किसानों ने सैकड़ों टन आलू सड़कों पर ले जाकर नष्ट कर दिया। यह तब हुआ जब देश के दूसरे हिस्सों में न केवल आलू की मांग थी, बल्कि उसके भाव भी चढ़े हुए थे। स्पष्ट है कि भूख और कुपोषण का सामना तब तक नहीं किया जा सकता जब तक सभी कमजोर कडि़यों को दुरुस्त नहीं किया जाता।
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