खूब फल-फूल रहा है अपहरण उद्योग

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के आँकड़ों के अनुसार हर साल देशभर में ४४ हजार बच्चों का अपहरण होता है जिनमें बमुश्किल एक-चौथाई ही मिल पाते हैं और बाकी पता नहीं कहाँ चले जाते हैं।


देश में बच्चों के अपहरण की घटनाएँ तेजी से बढ़ रही हैं। इन घटनाओं को रोकने के लिए केंद्र सरकार ने अब एक निगरानी तंत्र बनाने का निर्णय लिया है। इस करारनामे पर ३२ राज्यों ने दस्तखत किए हैं। देखा जाए तो कुछ वर्षों से अपहरण उद्योग में काफी तेजी आई है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के आँकड़ों के अनुसार हर साल देशभर में ४४ हजार बच्चों का अपहरण होता है जिनमें बमुश्किल एक-चौथाई ही मिल पाते हैं, बाकी कहाँ चले जाते हैं कोई पता नहीं।

राजधानी दिल्ली में हर साल औसतन सात हजार बच्चे लापता हो जाते हैं। इनमें आधे बच्चे घर नहीं पहुँच पाते हैं। सकुशल घर पहुँचने वाले बच्चों में अधिकतर बड़े रसूखदार, रईस, आला अधिकारी, नेता, अभिनेता और मंत्री आदि के बच्चे होते हैं। उसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि पुलिस की ओर से इन हाई-प्रोफाइल मामलों में ज्यादा तत्परता दिखाना। जैसा हाल ही के ईशान प्रकरण और २००६ में नोएडा से अपहरित एडोबे कंपनी के सीईओ नरेश गुप्ता के बेटे अनंत के मामले में देखने को मिला। इसी साल अप्रैल में राजधानी के १७७ बच्चों का अपहरण हुआ।

वर्ष २०१० में पुलिस ने ५५१ बच्चों के अपहरण के मामले दर्ज किए, जबकि भाजपा ने दिल्ली विधानसभा में १७,३०५ बच्चों के अपहरण के मामलों का रिकॉर्ड पेश कर पुलिस की नीयत पर शक जाहिर कर दिया। जिस तरह देश में किडनैपिंग के मामले बढ़ रहे हैं उससे चिंतित राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी २००७ में सरकार से राष्ट्रीय नेटवर्क गठित करने को कहा था। आयोग ने कहा था कि राज्यों की पुलिस ऐसा तंत्र विकसित करे कि इस तरह के मामलों की सूचना २४ घंटे के भीतर नवगठित राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के पास पहुँच जाए, जबकि पुलिस की जवाबदेही तय करते हुए आयोग ने कहा था कि ऐसी सूचना न देने पर माना जाएगा कि पुलिस ने मामले को दबाने का प्रयास किया है।

कुल मिलाकर कह सकते हैं कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने बच्चों की गुमशुदगी की रोकथाम के लिए उस वक्त जो सुझाव दिए थे, वे तभी कामयाब हो सकते हैं, जब पुलिस प्रशासन पूरी संवेदना के साथ इस दिशा में कारगर कदम उठाए। पर अफसोस कि न तो पुलिस और न ही हमारी सरकारों ने इस दिशा में ईमानदारी से कोई कदम उठाया। इसी का नतीजा है कि बच्चों का लगातार अपहरण हो रहा है।

ईशान को जिस तरह पुलिस ने महज तीन दिनों में ही बदमाशों के चंगुल से छुड़ाया है, इससे पुलिसिया कार्यप्रणाली पर यह कहकर उँगली उठाई जा सकती है कि क्या पुलिस को उसके बारे में पहले से पता था? वहीं मध्यवर्गीय परिवार के बच्चे जब गायब होते हैं तो पुलिस बिना जाँच-पड़ताल के ही उसकी फाइल बंद कर देती है। इतना ही नहीं, अगर गुमशुदा बच्चा किसी गरीब घर का हो तब तो उसकी गुमशुदगी रिपोर्ट तक नहीं लिखी जाती। सवाल उठता है आखिर पुलिस दोनों वर्गों में इतना फर्क क्यों समझती है? संविधान में समानता की बात भले लिखी हो लेकिन व्यवहार में असमानता ही दिखाई देती है।

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