आंदोलनकारियों का रेलवे पर कब्जा

 देश में किसी भी प्रकार का आंदोलन क्यों न हो, उसमें सरकारी संपत्ति को ही निशाना बनाया जाता है। मांगें जायज हों या नाजायज, आंदोलनकारी भीड़ पर प्रशासन काबू नहीं कर पाता और नतीजतन भीड़ बहती गंगा में हाथ धोने में पीछे नहीं रहती है। भीड़ को भी इस बात का खौफ नहीं होता कि उसे कोई पहचानता है। यही बात उन्हें उग्र बना देती है और गुस्साई भीड़ क्या नहीं कर सकती है। गत दिनों रेल बजट पेश करते हुए रेलमंत्री ममता बनर्जी ने आंदोलनकारियों के सिर ठीकरा फोड़ते हुए कहा था कि रेलवे को आसानी से निशाना बना लिया जाता है। वाकई उनकी टिप्पणी में दम है, लेकिन मंत्री महोदया का यह प्रस्ताव लुभावना नहीं है कि जिन राज्यों में पूरे साल ट्रेन सर्विस में बाधा नहीं डाली जाएगी, उन्हें दो नई गाडि़यां और दो नए प्रोजेक्ट दिए जाएंगे। जाट समुदाय अपनी बात मनवाने के लिए रेल ट्रैक को बाधित कर रहा है। इससे ट्रेनें सिर्फ विलंबित ही नहीं हो रही हैं, बल्कि रद भी हो रही हैं। होली के रंग में भंग डालने वाले इस तरह के जनाक्रोश को क्या उचित कहा जा सकता है? अपनी मांगों को मनवाने के लिए ऐसा पहली बार नहीं हुआ, इससे पूर्व गुर्जर समुदाय रेलमार्ग को बाधित कर चुका है। देखादेखी अन्य समुदाय भी इस राह को देर-सबेर अपनाएंगे ही। आखिर यह सिलसिला कब तक चलेगा? आंदोलनकारी अपनी मांगों को लेकर धरना-प्रदर्शन करें, इसमें कुछ भी गलत नहीं, लेकिन राष्ट्रीय संपत्ति को निशाना तो कम से कम न बनाएं। अब वक्त आ गया है कि जनसेवाओं को बाधित नहीं करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर बहस छिड़नी चाहिए। अब तक कई मामलों में हमारा अनुभव यही रहा है कि चाहे वह नक्सली समस्या हो या अन्य समस्याएं, आम जनजीवन को ठप करने और उन्हें नुकसान पहुंचाने वालों के साथ सख्ती से पेश आया जाए। प्रशासन की भी यह मानसिकता बन गई है कि जब सरकार ही कुछ नहीं करती तो हम क्यों मगजमारी करें? ममता दीदी ने राष्ट्रीय स्तर पर यह पहल करके कुछ तो आखिर किया है। हरियाणा में जाट सबसे बड़ा और राजनीतिक रूप से ताकतवर समुदाय है। अन्य राज्यों में भी उनकी स्थिति खराब नहीं है। फिर इन्हें आरक्षण की जरूरत क्यों होनी चाहिए? दरअसल, इसके पीछे राजनीतिक वर्चस्व की भावना ही मुख्य कारण है। आज जातीयता ने वर्ग संघर्ष की बलि ले ली है और अब वर्ग संघर्ष की जगह जाति संघर्ष देखने को मिल रहा है।

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