विकिलीक्स के ताजा खुलासे न केवल भारतीय राजनीति, बल्कि भारतीय लोकतंत्र और भारत को भी शर्मसार करने वाले हैं। 2008 में संप्रग सरकार ने जिन परिस्थितियों में विश्वास मत हासिल किया था वे उसी समय तब उजागर हो गई थीं जब भरे सदन में नोटों की गड्डियां लहराई गई थीं। अब अगर अमेरिकी राजनयिकों के गोपनीय संदेश यह कह रहे हैं कि सांसदों की खरीद-फरोख्त के लिए कहीं अधिक धन का इस्तेमाल हुआ था तो उन पर संदेह जताने का कोई मतलब नहीं। चूंकि अमेरिकी राजनयिक परमाणु करार को लेकर बेकरार थे इसलिए उनकी इसमें दिलचस्पी होना स्वाभाविक है कि संप्रग सरकार विश्वास मत हासिल करने में सफल रहेगी या नहीं? यह ठीक है कि वोट के बदले नोट कांड की जांच हुई थी, लेकिन यह आशंका पहले दिन से थी कि इस मामले में जांच के नाम पर लीपापोती हो सकती है। अंतत: ऐसा ही हुआ। यह हास्यास्पद है कि केंद्र सरकार यह तर्क देकर वोट के बदले नोट कांड से पल्ला झाड़ना चाहती है कि विश्वास मत के लिए सांसदों की खरीद-फरोख्त के आरोप 14वीं लोकसभा से संबंध रखते हैं और आज की सरकार केवल 15वीं लोकसभा के लिए जिम्मेदार है। क्या कोई इससे कमजोर एवं बचकाना तर्क हो सकता है? यदि पिछली लोकसभा के इस शर्मनाक कृत्य के लिए यह सरकार जिम्मेदार नहीं तो किस देश की सरकार जिम्मेदार होगी? क्या अमेरिका की? सरकार के इस तर्क का भी कोई अर्थ नहीं कि अमेरिका और उसके दूतावास के बीच की बातचीत राजनयिक छूट का मामला है, क्योंकि अभी तक विकिलीक्स के जो भी खुलासे हुए हैं उनका खंडन नहीं किया जा सका है। इसके अतिरिक्त यह भी किसी से छिपा नहीं कि अमेरिकी राजनयिक अपना आकलन कुछ सुनिश्चित आधारों पर करते हैं। वोट के बदले नोट कांड में भी ऐसा है। शायद यही कारण है कि सरकार सिर्फ यह कह रही है कि वह अमेरिकी राजनयिकों के गोपनीय संदेशों की न तो पुष्टि कर सकती है और न ही खंडन। यह कथन स्वत: यह सिद्ध करता है कि सच्चाई ऐसी है कि उसे सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता। वोट के बदले नोट कांड पर केंद्रीय सत्ता के नीति-नियंता चाहे जितनी लीपापोती करें, वे शर्मिदगी से बच नहीं सकते। अब यह और अच्छे से स्पष्ट हो रहा है कि केंद्र सरकार भ्रष्ट तत्वों और काले धन के कारोबारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं कर पा रही है? विकिलीक्स के खुलासे इस धारणा की पुष्टि करते हैं कि ऐसे तत्वों की पहुंच तो सत्ता के गलियारों तक है और वे सत्ता द्वारा संरक्षित भी हैं। बात चाहे पैसे बांटकर चुनाव जीतने की हो अथवा सांसदों की खरीद-फरोख्त की-ये दोनों मामले यह बताते हैं कि भारतीय राजनीति काले धन के दलदल में बुरी तरह धंसी हुई है। संभवत: यही कारण है कि इतना अधिक लज्जित और लांछित होने के बावजूद केंद्र सरकार भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के कोई ठोस उपाय नहीं कर रही है। इस पर आश्चर्य नहीं कि नेताओं के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए जो लोकपाल विधेयक लाया जा रहा है वह बेहद लचर है। केंद्रीय सत्ता चाहे जैसा दावा क्यों न करे, वह देश की जनता को यह यकीन दिलाने में नाकाम है कि उसके अंदर भ्रष्टाचार से लड़ने की तनिक भी राजनीतिक इच्छाशक्ति है।
अक्सर ये आधार संबंधित व्यक्तियों से सीधी बातचीत होते हैं।
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