ग्रामीण इलाकों तक सीमित नक्सली हिंसा अब शहरों तक भी आ पहुंची है। ग्रामीण और शहरी इलाकों में काफी फर्क है। शहरों में चाक-चौबंद पुलिस व्यवस्था है और सजग मीडिया मौजूद है, जिसके चलते नक्सलियों या माओवादियों के लिए लोगों को डराना-धमकाना और अपना प्रभाव कायम करना आसान नहीं होता। लेकिन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और मानवाधिकारों के तथाकथित हिमायतियों के सहयोग के चलते शहरों में भी नक्सलियों के प्रभाव क्षेत्र कायम हो गए हैं। पुलिस ने विदेश में शिक्षित माओवादियों के एक बड़े नेता कोबाद गांधी को दिल्ली में गिरफ्तार किया। वह जन संगठनों की उप समिति के प्रभारी थे और शहरी इलाकों में नक्सल प्रभाव को फैलाना उनकी जिम्मेदारी थी। कुछ वर्ष पहले पुलिस ने मुंबई में दो संदिग्ध नक्सली नेताओं - केंद्रीय पोलित ब्यूरो के सदस्य और महाराष्ट्र के राज्य सचिव, श्रीधर कृष्णन श्रीनिवास और नेशनल कमेटी के एक सदस्य, वर्नोन गोंजालीज को गिरफ्तार किया था। इन गिरफ्तारियों से शहरी इलाकों में विभिन्न रूपों में उनकी पैठ का अंदाजा लगता है। नक्सली शहरी इलाकों से राशन, साजोसामान, हथियार और गोली-बारूद भी खरीदते हैं। नक्सली नेताओं को पकड़ने के लिए की गई छापामारी के दौरान जब्त शहरी काम के बारे में शीर्षक वाली एक पुस्तक में शहरी इलाकों को माओवादियों द्वारा निशाना बनाए जाने की योजनाओं में नौ इलाकों को शामिल किया गया है। ये इलाके हैं अहमदाबाद-पुणे गलियारा, नई दिल्ली, बेंगलूर, चेन्नई, कोयंबतूर-इरोड़ पट्टी, हैदराबाद, कोलकाता, मध्य भारत के औद्योगिक शहर और गंगा का मैदानी इलाका। दूसरे शब्दों में वे लगभग पूरे देश पर ही नियंत्रण जमाना चाहते हैं। इस योजना को गंभीरता से लेने की जरूरत है। उच्चतम न्यायालय के एक फैसले के अनुसार, किसी प्रतिबंधित संगठन का सदस्य होना तब तक अपराध नहीं है, जब तक कि उसका सदस्य हिंसा में शामिल न हो। इस फैसले को देखते हुए भारत की आंतरिक सुरक्षा को भारी नुकसान पहंुचाने और आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त लश्कर जैसे संगठनों को प्रतिबंधित करने के कोई मायने ही नहीं रह जाते। अब खुफिया तंत्र, हथियारों और जनशक्ति सहित पूरे बुनियादी ढांचे को दुरुस्त करने का समय भी आ गया है। इसे राज्यों का विषय बता कर गेंद राज्यों के पाले में डाल देने से बात नहीं बनेगी। राज्यों को कानून बनाने का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि संविधान में साफ कहा गया है कि कोई भी राज्य केंद्रीय कानूनों से मेल न खाने वाले कानून नहीं बनाएगा। सच पूछें तो कुछ राज्यों को शिकायत है, जो सही भी है कि केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी वाले राज्यों को महाराष्ट्र अपराध नियंत्रण कानून जैसे कठोर कानून बनाने की इजाजत दे दी गई है, लेकिन दूसरे राज्यों को ऐसे ही कानून बनाने से रोक दिया गया है। अगर कानून हों भी तो आम आदमी को सुरक्षा प्रदान करने की सरकार की विश्वसनीयता इतनी कम हो गई है कि लोगों को माओवादियों और नक्सलियों की बातों पर अधिक भरोसा है। पुलिस के बारे में किसी ठोस नीति के अभाव में और किसी भी कीमत पर तुष्टीकरण करने की लगातार कोशिशों के चलते नक्सली हिंसा से निपटना मुश्किल हो जाता है। इसलिए माओवाद प्रभावित क्षेत्र में तैनात सिपाही के मन में सरकार के इरादों और नीतियों को लेकर संशय बना रहता है। अफसोस की बात है कि देश में करीब तीन लाख सिपाहियों की कमी है। पुलिस के पास घटिया उपकरण है, ट्रेनिंग अपर्याप्त है और उनकी औसत आयु 40 वर्ष है तथा लगातार इसमें वृद्घि हो रही है। यह सब पिछले 20 सालों का संचयी प्रभाव है और दो सालों में तो हालात नहीं बदले जा सकते। जितनी जल्दी सरकार इस ओर ध्यान देगी, उतना ही बेहतर होगा।
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