धरोहरों के प्रति हमारी उदासीनता

भारतीय सिनेमा को सौ साल पूरे हो गए हैं। लंबा सफर करते हुए हमारे सिनेमा ने नई ऊँचाइयाँ हासिल की हैं लेकिन यह बहुत ही दुःखद है कि हम कालजयी और दुर्लभ फिल्मों को सहेजने में लापरवाह हैं। ङ"ख१४ऋ


हर शुक्रवार एक फिल्म रिलीज़ होती है, हम जाते हैं, देखते हैं, फिल्म में किरदार इधर उधर दौड़ते नाचते-गाते हैं, लड़ते-झगड़ते हैं, प्यार मुहब्बत की बातें करते हैं, आज कल गाली-गलौज भी करते हैं और फिर एक सुखद, दुखद या मिश्रित अंत के साथ फिल्म खत्म हो जाती है।

इस बीच हमें शायद ही ध्यान आता है कि ़फिल्में कभी बिना आवाज़ के भी होती थीं। कैमरे में जो कुछ भी फिल्माया जाता उसमें दिखने वाली भाव-भंगिमाओं के सहारे ही हमें फिल्म में घटित होने वाले घटनाक्रम का अंदाज़ा लगाना पड़ता था, ऐसा मान लीजिए कि कैमरा चुपचाप होते हुए भी इतना बोलता था कि दर्शकों को फिल्म को समझने में कोई कठिनाई नहीं आती थी। कैमरा कितना भी बोले आवाज़ की कमी तो कहीं न कहीं खलती होगी और इसी वजह से बोलता हुआ सिनेमा बनाने का सपना देखा गया होगा।

भारतीय जनता के सामने यह सपना १४ मार्च १९३१ को साकार हो कर मुंबई के मैजेस्टिक थियेटर में आलम आरा के रूप में आया। इस फिल्म के निर्माता थे इम्पीरियल मूवीटोन और इसका निर्देशन किया था आर्देशिर इरानी ने। फिल्म में मुख्य भूमिकाएँ निभाई थीं मास्टर विट्ठल, जुबैदा, जिल्लू, सुशीला और पृथ्वी राज कपूर ने। यह फिल्म एक जिप्सी लड़की और एक राजकुमार की प्रेम कहानी थी जिसकी पृष्ठभूमि में अपने भीतर ही हुए षड्यंत्रों का शिकार एक राजपरिवार था।

एक बच्चा जैसे अपना खोया हुआ झुनझुना मिल जाने पर उसे जी भर के बजाता है, उसी तरह जब भारतीय सिनेमा को आलम-आरा के जरिये जब आवाज़ मिली तो उसने उस आवाज़ का सबसे खूबसूरत प्रयोग जीभर कर किया। वह प्रयोग हमारे सामने आलम आरा के सुखद संगीत के रूप में था। प्रख्यात निर्देशक श्याम बेनेगल ने आलम-आरा के बारे में कहा था कि यह सिर्फ टॉकी नहीं थी बल्कि बातचीत करने वाली और गाने वाली ऐसी फिल्म थी जिसमें गाने अधिक थे और बातचीत कम थी। इस बोलती फिल्म ने एक ये मानक तय कर दिया कि अगर अब हिंदुस्तान में सिनेमा बनेगा तो उसमें गीत-संगीत अनिवार्य रूप से रहेंगे।

आज भी हमारी ़फिल्में गीत-संगीत से भरपूर होती हैं, बहुत बार तो ऐसा हुआ है कि फिल्म पिट गई लेकिन उसके गीत-संगीत नें लोगों के दिलों पर राज किया है। आलम आरा के गीत "दे दे खुदा के नाम पे प्यारे"क को भारतीय सिनेमा का पहला गीत माना जाता है जिसे गाया था फिल्म में फ़कीर का किरदार अदा करने वाले अभिनेता वज़ीर मोहम्मद खान ने। चूँकि उस समय पार्श्व गायन की तकनीक नहीं आई थी इसलिए खुद अभिनेता ने ही गीत गाया था। पूरी फिल्म की शूटिंग रात में की गई थी क्योंकि दिन में शूटिंग के वक्त अभिनेताओं के आस-पास छिपा कर रखे गए माइक्रो फोन के द्वारा आसपास के शोर के भी रिकॉर्ड हो जाने का खतरा था। गीत के मुखड़े से यह बात पता चल जाती है कि यह एक सूफियाना गीत था। अब इस गीत के सिर्फ लिखित मुखड़े ही उपलब्ध हैं, इसका संगीतबद्घ रूप नष्ट हो चुका है। २००३ में पुणे स्थित फिल्म एंड टेलिविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया में आग लग जाने की वजह से राजा हरिश्चंद्र तथा अछूत कन्या जैसी फिल्मों के साथ आलम आरा का आखिरी प्रिंट भी नष्ट चुका है। दरअसल यह हमारी धरोहरों की प्रति हमारी उदासीनता का प्रतीक है और जब तक हम हमारी ये उदासीनता नहीं छोड़ेंगे तब तक ऐसे ही अपनी धरोहरों से हाथ धोते रहेंगे। आर्काईव में रख कर फिल्मों को सड़ाने (बेहतर शब्द जलाने) से बेहतर ये होगा कि उनको संरक्षित करने के दूसरे तरीके अपनाए जाएँ ताकि हम अपने इतिहास के गवाह बन सकें।

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