यह कल्पना से भी परे की बात है कि कोई छात्र अपने ही शिक्षक की हत्या क्लासरूम में कर दे। यह भी कम हैरान करने वाली बात नहीं कि ऐसी घटनाएं आज हकीकत बन रही हैं। चेन्नई देश का एक महानगर है जो शैक्षिक गुणवत्ता की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जाता है, लेकिन वहां एक 15 वर्षीय नाबालिग छात्र ने अपनी ही शिक्षिका की चाकू घोंप-घोंपकर क्रूरतापूर्वक हत्या कर दी। छात्र मोहम्मद इरफान, शिक्षिका उमा माहेश्वरी से इसलिए नाराज था, क्योंकि उन्होंने अभिभावकों से छात्र के विद्यालय नहीं आने की शिकायत की थी। सेंट मैरी एंग्लो-इंडियन हायर सेकेंड्री स्कूल में यह घटना घटी। विद्यालय के प्रशासक बॉस्को पेरियानयागम की मानें तो हमलावर छात्र ने सुनियोजित ढंग से इस घटना को अंजाम दिया, क्योंकि वह चाकू किताब में छिपाकर लाया था और कक्षा में जब चंद छात्र मौजूद थे तब उसने अचानक ही शिक्षिका पर जानलेवा हमला बोल दिया। कुछ समय पहले वैश्विक संस्कृति की आदर्श श्रेणी में आ चुके और साइबर सिटी का मुहावरा बन चुके दिल्ली से सटे शहर गुड़गांव में भी आधुनिक शिक्षा की ऐसी ही परिणति देखने में आई थी। वहां कुलीन बच्चों को विद्यार्जन कराने वाले यूरो इंटरनेशनल स्कूल के आठवीं कक्षा में पढ़ने वाले दो छात्रों ने अपने ही सहपाठी की छाती गोलियों से छलनी कर दी थी। इसी तरह की एक घटना दिल्ली में घटी जहां चोर-सिपाही का खेल खेल रहे एक 12 साल के बच्चे ने सचमुच की पिस्तौल को खिलौना समझकर अपने एक दोस्त पर दाग दिया। नतीजतन बच्चे की मौत हो गई। ऐसी ही घटना उत्तर प्रदेश के सहारनपुर के गांव में घटी जहां 11वीं के एक छात्र ने अध्यापक की डांट से गुस्सा होकर उनके पेट में छूरा घोंप दिया। उत्तर प्रदेश के ही खुर्जा में एक छात्र ने छोटी सी बात पर अपने एक सहपाठी का कान काट खाया और कटे कान को बीच रास्ते में उगल दिया। ये घटनाएं उस बर्बर, वीभत्स और निरंकुश संस्कृति की देन है जो नैतिक एवं मानवीय मूल्यों को रौंदकर बेतहाशा दौलत कमाने वाले नवधनाढ्यों के वर्ग में शामिल हो गया है और अब आपराधिक कृत्यों को अंजाम देकर जिनका अहंकार तुष्ट हो रहा है। इस तरह की पनप रही हिंसक मानसिकता के लिए हमारी कानून व्यवस्था भी दोषी है, क्योंकि धन के बूते अभिभावक येन-केन-प्रकारेण अपने बच्चों को कानूनी शिकंजे से बचा लेते हैं। विद्यालयों में छात्र हिंसा से जुड़ी ऐसी घटनाएं पहले अमेरिका जैसे विकसित देशों में ही सुनी जाती थीं, लेकिन अब भारत में यह सिलसिला शुरू होना खतरनाक संकेत है। हालांकि भारत का समाज अमेरिकी समाज की तरह उतना आधुनिक नहीं है कि जहां पिस्तौल अथवा चाकू जैसे हथियार रखने की छूट छात्रों को हो। अमेरिका में तो ऐसी विकृत संस्कृति पनप चुकी है जहां अकेलेपन के शिकार एवं मां-बाप के लाड़-प्यार से उपेक्षित बच्चें जब तब कुंठा में आकर हिंसा कर देते हैं। पिछले एक दशक में छात्र हिंसा से जुड़ी कई वारदातें सामने आ चुकी हैं। रैंगिग से जुड़ी एकाध गंभीर घटना को छोड़ भी दें तो बाकी सभी घटनाएं पारस्परिक मतभेदों की उपज हैं। रैंगिग के बहाने छात्र हिंसा यौन उत्पीड़न के रूप में भी देखने में आई है। केरल के एक नर्सिग कॉलेज में तो रैंगिग के बहाने बलात्कार की घटना भी सामने आई। इस घटना ने शिक्षा में मूल्यों के चरम बहिष्कार को रेखांकित किया था। अंग्रेजी में पूर्ण दक्षता नहीं रखने वाले आइआइटी के छात्रों को भी रैगिंग के बहाने अपमान के दंश झेलने पड़ रहे हैं। रैंगिग के शिकार कई छात्रों ने कुंठा और अवसाद में आकर आत्महत्याएं तक कर चुके हैं। ऐसे छात्रों के साथ आर्थिक और शैक्षिक असमानता भी हिंसक कारणों की वजह बनती है। बच्चों को केवल धन कमाऊ कैरियर के लायक बना देने वाली प्रतिस्पर्धा का दबाव भी उन्हें विवेक शून्य बनाती है। सामाजिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ये ऐसे गंभीर कारण हो सकते हैं जिनकी पड़ताल जरूरी है। आज अभिभावकों की अतिरिक्त व्यस्तता और अकेलापन भी बच्चों को बिगाड़ने के लिए दोषी है। विद्यालय भी नैतिक और संवेदनशील मूल्य बच्चों में रोप पाने में असफल हैं। छात्रों पर शिक्षा का बेवजह दबाव उनमें बर्बर मानसिकता भर रही हैं। आज साहित्यिक शिक्षा पाठ्यक्रमों में कम से कमतर होती जा रही है, जबकि साहित्य और समाजशास्त्र ऐसे विषय हैं जो समाज से जुड़े सभी विषयों और पहलुओं का वास्तविक यथार्थ प्रकट कर बालमन में संवेदनशीलता का स्वाभाविक सृजन करते हैं। इससे हृदय की जटिलता टूटती है और सामाजिक विसंगति को दूर करने के लिए कोमल भाव बालमन में अंकुरित होते हैं। महान और अपने-अपने क्षेत्रों में सफल व्यक्तियों की जीवन-गाथाएं (जीवनियां) भी व्यक्ति में संघर्ष के लिए जीवटता प्रदान करती हैं, लेकिन दुर्भाग्य से हमारे यहां ऐसा कोई पाठ्यक्रम नहीं है। भूमंडलीकरण के उदारवादी दौर में हम बच्चों को क्यों नहीं पढ़ाते कि संचार तकनीक और रिफाइनरी का जाल बिछाने वाले धीरूभाई अंबानी एक कम पढ़े-लिखे साधारण व्यक्ति थे। वह पेट्रोल पंप पर वाहनों में पेट्रोल डालने का मामूली काम करते थे। इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति ने अपने व्यवसाय की शुरुआत मात्र दस हजार रुपये की छोटी सी रकम से की थी और आज अपनी व्यावसायिक दक्षता के चलते अरबों का कारोबार कर रहे हैं। दुनिया में कम्प्यूटर के सबसे बड़े उद्योगपति बिल गेट्स पढ़ने में औसत दर्जे के छात्र थे। इसी तरह इंडियन एक्प्रेस और जनसत्ता के संपादक रहे प्रभाष जोशी मात्र 10वीं तक पढ़े थे। कामयाब लोगों के शुरुआती संघर्ष को पाठ्यक्रमों में स्थान दिया जाए तो पढ़ाई में औसत हैसियत रखने वाले या कमजोर छात्र भी हीनताबोध की उन ग्रंथियों से मुक्त रहें जो अवचेतन में क्षोभ, अवसाद और संवेदनहीनता के बीज अनजाने में ही बो देती हैं। इससे छात्र तनाव व अवसाद में आकर हत्या, आत्महत्या अथवा बलात्कार जैसे गंभीर आपराधिक कारनामे तक कर डालते हैं। वैसे भी सफल एवं भिन्न पहचान बनाने के लिए व्यक्तित्व में दृढ़ता, तीव्र इच्छाशक्ति और कठोर परिश्रम की जरूरत होती है जो केवल कामयाब लोगों की जीवनियों से ही सीखा जा सकता है। सरकार ने शिक्षा में पर्याप्त सुधार के लिए उत्तम स्तर के छह हजार विद्यालय और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में छात्रों को श्रेष्ठ ज्ञान विज्ञान से दीक्षित करने हेतु चौदह सौ महाविद्यालय खोले हंै। शिक्षा को व्यवसाय का दर्जा देकर निजी क्षेत्र के हवाले छोड़कर हमने बड़ी भूल की है। ये प्रयास शिक्षा में समानता के लिहाज से बेमानी हैं, क्योंकि ऐसे ही विरोधाभासी व एकांगी प्रयासों से समाज में आर्थिक विषमता बढ़ती है। यदि ऐसे प्रयासों को और बढ़ावा दिया गया तो विषमता की यह खाई और बढ़ेगी। जबकि इस खाई को पाटने की जरूरत है। यदि ऐसा नहीं किया गया तो शिक्षा केवल धन से हासिल करने का हथियार रह जाएगी। जिसके परिणाम कालांतर में और भी घातक व विकृत होंगे। इससे समाज में सवर्ण, पिछड़े, आदिवासी व दलितों के बीच आर्थिक व सामाजिक मतभेद बढ़ेंगे जो वर्ग संघर्ष के हिंसक हालात बनाएंगे। यदि शिक्षा को बिना किसी भेदभाव के सर्वसुलभ बनाया जाता है तो छात्रों में नैतिक मूल्यों के प्रति चेतना जगेगी। उनमें संवेदनशीलता और पारस्परिक सहयोग व समर्पण वाले सहअस्तित्व का बोध पनपेगा जो सामाजिक न्याय और सामाजिक संरचना को स्थिर बनाने में सहायक होगा। वैसे मनोवैज्ञानिकों की मानें तो आमतौर से बच्चें आक्रामकता और हिंसा से दूर रहते हैं, लेकिन घरों में छोटे पर्दे पर परोसी जा रही हिंसा और सनसनी फैलाने वाले कार्यक्रम इतने असरकारी साबित हो रहे हैं कि हिंसा का उत्तेजक वातावरण घर-आंगन में भी फैल रहा है। मासूम और बौने से लगने वाले कार्टून चरित्र भी पर्दे पर बंदूक थामे दिखाई देते हैं जो बच्चों में आक्रोश पैदा करने का काम करते हैं। कुछ समय पहले दो किशोर मित्रों ने अपने तीसरे मित्र की हत्या केवल इसलिए कर दी थी कि वह उन्हें वीडियो गेम खेलने के लिए तीन सौ रुपये नहीं दे रहा था। लिहाजा छोटे पर्दे पर लगातार दिखाई जा रही हिंसक वारदातों के महिमामंडन पर अंकुश लगाया जाना जरूरी है। यदि बच्चों के खिलौनों का समाजशास्त्रीय एवं मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया जाए तो हम पाएंगे की हथियार और हिंसा का बचपन में अनधिकृत प्रवेश हो चुका है। सबसे ज्यादा नकारात्मक बात यह है कि हमने न तो पारंपरिक ज्ञान विज्ञान को उपयोगी माना है और न ही शिक्षा के सिलसिले में महात्मा गांधी व गिजुभाई बधेका जैसे शिक्षाशास्ति्रयों के मूल्यों को तरजीह दी है। शिक्षा आयोगों की नसीहतों को भी अमल में नहीं लाया गया। अभी भी यदि हम वैश्विक संस्कृति और अंग्रेजी शिक्षा के मोह से उन्मुक्त नहीं होते तो शिक्षा परिसरों में हिंसा, हत्या, आत्महत्या और बलात्कार जैसी घटनाओं में और इजाफा होगा। इनसे निजात पाना है तो जरूरी है कि तनावपूर्ण स्थितियों में सामंजस्य बिठाने, महत्वाकांक्षा को तुष्ट करने और चुनौतियों से सामना करने के कौशल को शैक्षिक पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए।
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