अगर बीते साल यानी 2011 को किसी एक-दो शब्द में परिभाषित करना हो तो उसके लिए पीपल पॉवर से बेहतर दूसरा विकल्प नहीं हो सकता। पहले हमने अरब देशों में आम जनता की क्रांति को देखा। उसके बाद यूरोप और अमेरिका जैसे साम्राज्यवादी ताकतों वाले मुल्कों में आम जनता ने अपनी ताकत का एहसास कराया। वहीं भारत में पूरे साल अन्ना हजारे और बाबा रामेदव के आंदोलनों के जरिये आम आदमी की ताकत का एहसास होता रहा। गत 27 दिसंबर को जब अन्ना हजारे अपने साथियों के साथ मुंबई के एमआरडीए मैदान में अनशन करने पहुंचे तो सबकी दिलचस्पी के केंद्र में आम आदमी था। एमआरडीए मैदान में जुटने वाली भीड़ से इस जनलोकपाल के आंदोलन को मजबूती मिलती और संभवत: लोकसभा की बैठक से पहले सरकार पर दबाव भी बढ़ता, लेकिन मुंबई जैसे आपाधापी व भागमभाग वाले महानगर में अन्ना का आंदोलन उतनी भीड़ नहीं जुटा पाया। जाहिर है, सरकार पर दबाव नहीं पड़ा और उसने लोकसभा में बिल पारित करा लिया। दूसरी ओर अन्ना की बिगड़ती सेहत के चलते अनशन भी रद करना पड़ा। कुछ लोगों की नजरों में यह आंदोलन का टांय-टांय फिस्स होना हो सकता है, लेकिन हम जानते हैं कि आम जनता से जुड़ा कोई भी आंदोलन एक ही झटके से कामयाब नहीं होता। जन आंदोलनों को अपनी मंजिल तक पहुंचने में काफी वक्त लगता है, लेकिन वे अपनी मंजिल तक पहुंच सकते हैं, वे बदलाव का सूरत बना सकते हैं। वे मजबूत से मजबूत सत्ता तंत्र को हिला सकते हैं। और यह बीते हुए साल में दुनिया भर में देखने को मिला। दरअसल, पूरी दुनिया में जिस तरह से आम लोगों का आक्रोश नजर आया, उसे देखते हुए कई लोगों को 1960 के दशक के रेडिकल दौर की याद भी हो आई। यह वह दौर था, जब हर युवा को भरोसा होता था कि वह दुनिया बदल सकता है। वह दुनिया को बदलने के सपने भी देखता था और उसके लिए चिंतन भी करता था, लेकिन यह दौर लंबे समय तक नहीं चल पाया। ज्यों-ज्यों बाजार का दौर बढ़ने लगा, आम लोगों की सोच और सपने भी मनी माइंडेड होने लगे। बाजार का बुलबुला 2008 में जब पहली बार फूटा तो आम लोगों में इतना आक्रोश नहीं दिखा, लेकिन जब दूसरी बार वह फूटा तो अलग-अलग वजहों से ही सही, दुनिया भर में आम लोगों में आक्रोश दिखा। इसकी शुरुआत हुई अरब मुल्कों से। जहां बेशुमार दौलत और निरकुंश राजशाही जैसे तंत्र की सामानांतर व्यवस्था आम लोगों के सपनों को बीते कई दशकों से दबाए हुई थी। ट्यूनीशिया में जनवरी में ही एक व्यापारी ने खुद को जला लिया। इसके बाद आम लोग सड़कों पर उतर आए। आम लोगों की हिंसा का नतीजा रहा कि राष्ट्रपति बेन अली को देश छोड़कर भागना पड़ा। इसके बाद मिस्र की जनता वहां सड़कों पर उतर आई। राजधानी काहिरा का तहरीर स्क्वॉयर क्रांति का नुक्कड़ बन गया। वहां के राष्ट्रपति होस्नी मुबारक को सत्ता से बेदखल होना पड़ा। नए साल में वहां अब भी चुनौतियां कायम हैं, क्योंकि मुबारक के बाद सत्ता सेना के हाथों में चली गई और आमलोग सेना का अब भी विरोध कर रहे हैं। देखना होगा कि नए साल में मिस्र की आम जनता किस मुकाम तक पहुंचती है। बीते चार दशकों से लीबिया में शासन कर रहे और अमेरिकी आंखों में किसी कांटे की तरह चुभ रहे कर्नल गद्दाफी को भी आम जनता ने सत्ता से बेदखल कर दिखाया। आम लोगों का यह संघर्ष यमन और सीरिया की सड़कों पर भी दिखा है। यह नहीं कहा जा सकता है कि अरब देशों में अब शांति कायम हो चुकी है। अब भी आम जनता के बीच आक्रोश बना हुआ है। आम जनता के इसी आक्रोश की दूसरी झलक यूरोप और अमेरिकी समाज में देखने को मिली। यह आर्थिक दिवालिएपन की ओर बढ़ते समाज के लोगों का आक्रोश था। इस आक्रोश में अपर मिडिल क्लास का तबका सड़कों पर दिखा। फाइनेंशियल सेक्टर के सबसे अहम ठिकाने लंदन में पहले पहल इसकी झलक दिखी। फिर यूरोपियन सेंट्रल बैंक के जर्मनी और फ्रांस के मुख्यालयों से होते हुए यह आंदोलन यूनान और इटली सहित सभी यूरोपीय देशों को परेशान करने के बाद आक्यूपाई वॉल स्ट्रीट के जरिए अमेरिका तक पहुंच गया। दरअसल, यह आंदोलन उसी बाजार के खिलाफ था, जिसके पीछे सारी दुनिया बीते दो दशक से भाग रही थी। दुनिया भर के विकसित देशों ने उदारीकरण के दौर में सबसे ज्यादा निवेश अपनी बैंकिंग और फाइनेंशियल सेक्टर में किया। इसके चलते बिना ठोस आधार के एक काल्पनिक अर्थव्यवस्था ने जन्म ले लिया। जिसे आप क्रेडिट की व्यवस्था कह सकते हैं। जिस आदमी की आमदनी दस हजार रुपये प्रतिमाह है, बाजार इसी अर्थव्यवस्था के तहत उसे 10 लाख रुपये के उत्पाद खरीदने का सपना दिखाने लगा था। ऐसे में देर-सबेर यह होना ही था। इस मसले का हल वहां की सरकारों के पास था, लेकिन उन्होंने अपना भरोसा अभी काल्पनिक इकॉनमी से नहीं हटाया। मगर इन जनआंदोलनों के चलते एक बार फिर रीयल इकॉनमी की व्यवस्था के प्रति भरोसा मजबूत हुआ है। वहीं भारत के लिए भी बीता साल हलचलों भरा रहा। पहले तो एक के बाद एक घोटालों के सामने आने से आम लोगों का व्यवस्था के प्रति आक्रोश ने पैठ बनानी शुरू की। 2जी घोटाला, उत्तर प्रदेश में चावल घोटाला, कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन के दौरान धांधली और हाउसिंग लोन संबंधित घोटाले से संप्रग सरकार पर दबाव लगातार बढ़ रहा था। मनमोहन सिंह की ईमानदार छवि जरूर थी, लेकिन ऐसा लगने लगा था कि वे बेईमानों के ईमानदार कैप्टन बन गए हैं। इसी उहापोह के दौर में अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी और प्रशांत भूषण जैसे समाजिक कार्यकर्ताओं ने अन्ना हजारे को 42 साल पुराने लोकपाल कानून की लड़ाई लड़ने के लिए तैयार कर लिया। अब तक गांधीवादी तरीकों से महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव की काया पलटने वाले अन्ना हजारे इस बार दिल्ली के मंच तक पहुंचे। अन्ना का सादगी भरा जीवन और उनकी बेदाग छवि सरकार की ताकत पर भारी पड़ने लगी। आम जीवन में रोजाना भ्रष्टाचार के बिना कदम-कदम पर अटकने वाली दिल्ली की जनता अन्ना हजारे में गांधी का अक्स देखने लगी। सरकार इसे कुछ महत्वाकांक्षी लोगों का आंदोलन बताती रही। दूसरी ओर आम जनता अन्ना हजारे के आंदोलन से जुड़ती गई। वहीं बाबा रामदेव ने काले धन के खिलाफ मोर्चा संभाला। दिल्ली में पुलिस बल के प्रयोग के चलते उनके आंदोलन का ताना-बाना जरूर बिगड़ा, लेकिन वे भी आम लोगों को अपने आंदोलन से जोड़ने में कामयाब रहे। यह अन्ना के आंदोलन में उभरे जनसमर्थन का असर था कि सरकार के कद्दावर मंत्रियों को अपना ठिकाना तिहाड़ जेल में बनाना पड़ गया। सरकार ने इन सबके बीच आम लोगों की राहत के लिए खाद्य सुरक्षा कानून पास करके एक ऐसा काम किया, जिससे देश में भुखमरी और कुपोषण की समस्या को दूर करने में मदद मिल सकती है। आम जनता के विरोध का ही असर रहा है कि सरकार रिटेल कारोबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी दिलाने के अपने फैसले से पीछे हट गई। बहरहाल, दुनिया भर में आम लोगों के इन आंदोलनों का कामयाब बनाने में सोशल मीडिया और नेटवर्किग साइट्स की अहम भूमिका रही। इसके जरिये रातोंरात आंदोलन दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंचता दिखा। जूलियन असांजे ने अपनी विकलीक्स की ताकत से बताया कि एक शख्स दुनिया की सबसे ताकतवर सरकार की पोल खोल सकता है। ऐसी साइटों के खिलाफ और उस पर अंकुश लगाने वाले कपिल सिब्बल के बयान ने उन्हें साल का सबसे अलोकप्रिय नेता बना दिया। इन सब पृष्ठभूमि में नया साल आ चुका है। नए साल में सबसे बड़ी चुनौती यही है कि क्या इस साल भी पीपल पॉवर का ऐसा नजारा दिखेगा। कम से कम भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो अन्ना हजारे अपने आंदोलन को आम लोगों तक पहुंचाने की रणनीति में जुट गए हैं। सरकार लोकपाल कानून को लेकर आम राय नहीं बना सकी है और इसी साल पांच राज्यों में चुनाव भी होने वाले हैं। इस लिहाज से आम लोगों के सामने मौका भी होगा कि वे सरकार की रणनीति पर अपनी राय रख सकें। यह हमारे लोकतंत्र का दुर्भाग्य है कि अभी तक हम अपनी संसदीय राजनीति को साफ-सुथरा और जनआकांक्षाओं के अनुरूप नहीं बना सके हैं।
इस दिशा में आगामी पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव निर्णायक भूमिका निभाएंगे। अब इस देश के जागरूक मतदाता ही देश को नई दिशा दे सकते हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह देखना जरूरी है कि जिस व्यक्ति को जनता चुनकर संसद या विधानसभा भेज रही है, वह समझदार हो, ईमानदार हो और स्वार्थी न हो। हमारा जनप्रतिनिधि क्षेत्र के लिए काम करने वाला हो। यह तभी संभव होगा, जब हर कोई अपने मताधिकार का सही प्रयोग करेगा। यदि आप अपने वोट का इस्तेमाल नहीं करते हैं तो समझिए अपराध करते हैं, अपराधिक प्रवृत्ति के लोगों को बल प्रदान करते हैं। इसलिए समाज के हित में मतदान का प्रयोग जरूरी है। यह आम जनता के लिए अपना रहनुमा चुनने का वक्त है। कहते हैं कि सरकार ही जनता की आवाज होती है और हम अपनी आवाज कितनी बुलंद करते हैं, यह हमारे हाथ में है। यह सरकार चुनने का पर्व है। लोकतंत्र में एक-एक मत के मायने है और इसके प्रति यदि कोई उदासीन है तो वह अपने और भावी पीढि़यों के प्रति न्याय नहीं कर रहा है। युवाओं को आगे आना चाहिए। अगर आप किसी विचारधारा के समर्थक हैं तो उसे वोट में बदलें। अन्ना हजारे अपने लिए कुछ नहीं मांग रहे हैं। उनका मकसद भ्रष्टाचार मुक्त भारत का निर्माण है। लोकपाल कानून इस दिशा में पहला कदम होगा और उसके बाद चुनाव सुधार की बारी है ताकि हमारी संसद जनता की आशा आकांक्षाओं का सचमुच प्रतीक बन सके। आज वहां 160 से अधिक दागी सांसद मौजूद हैं, जो कभी भी भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई मजबूत कानून नहीं बनने देंगे। उन्हें हमने और आपने चुना है, इसलिए हम अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकते हैं।
भ्रष्टाचार के खिलाफ अगर आम जनता ने सरकार के खिलाफ वोट दिया तो निश्चित तौर पर सरकार पर नए साल में एक मजबूत और कारगर लोकपाल कानून लाने का दबाव बढ़ेगा। यह अन्ना और उनके जनआंदोलन का सबसे बड़ा हासिल है।
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