अन्ना के दौर में गांधी!

 आज हमारा राष्ट्रीय चरित्र भ्रष्ट हो गया है, सामाजिक मूल्यों की दशा बद से बदतर होती जा रही है। त्याग, क्षमा और धैर्य शब्द हमारे शब्दकोष से मिट चुके हैं। दक्षिण अफ्रीका में गुजराती व्यापारियों के कानूनी मसलों का हल ढूंढ़ने के लिए गए गांधी के साथ घटी एक सामान्य सी घटना ने उनके सोचने का तरीका बदल दिया। एक रात वह रेलगाड़ी के प्रथम श्रेणी के डिब्बे में डरबन से प्रिटोरिया जा रहे थे तो आधे रास्ते में एक गोरा उनके कंपार्टमेंट में आया और उन्हें डिब्बे से जाने को कहने लगा। गांधी ने उसे टिकट दिखाया, लेकिन गोरा यह सब सुनने को तैयार नहीं था। ट्रेन रुकते ही उसने पुलिस बुला ली और मोहनदास को सामान सहित ट्रेन से धकेल दिया गया। भयानक सर्दी की रात में वह स्टेशन पर ठिठुरते रहे। इस घटना ने उनका कायाकल्प कर दिया। पहली बार मोहनदास ने भारतीयों को एकत्र कर अन्याय के विरुद्ध एक होने के लिए ललकारा। यह युद्ध कोई लाठी-बंदूक से नहीं लड़ा गया। इस युद्ध के हथियार थे सत्य, अहिंसा, क्षमा, धैर्य और सहनशीलता के तत्वों से बना सत्याग्रह जिसके आगे दक्षिण अफ्रीका की गोरी सरकार को झुकना पड़ा। रेलवे को भी सुनिश्चित करना पड़ा कि भारतीय भी प्रथम श्रेणी डिब्बे में बैठने के हकदार हैं। वर्तमान में भी हम देखें तो समाज के पतन के पीछे भौतिक सुख-साधन हैं। एक बड़ी सी गाड़ी में बैठे युवक ने केवल 27 रुपयों के लिए निरपराध टोलकर्मी की जान ले ली, जो महज एक बानगी है। यदि इसके पीछे कारणों की खोज करें तो परिणाम यही निकलेगा कि भौतिक सुख-साधनों की वृद्धि ने मनुष्य के नैसर्गिक गुणों को ही तिरोहित कर दिया है। क्षमा-सहनशीलता जैसे गुण कायरता माने जाते हैं। बात-बात पर अपनी ताकत दिखाने वाला ही समाज का सिरमौर बना बैठा है। गांधी के इस देश में हम उनके ही सिद्धांतों को भुला बैठे हैं। सड़क, चौराहे और नोटों पर उनकी तस्वीर सजाकर हमने अपने कर्तव्यों की पूर्ति मान ली है। महात्मा गांधी के नाम पर चुनाव लड़े जाते हैं। हम विश्वशक्ति बन रहे हैं। आइटी के क्षेत्र में हमारा कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं है। यदि कुछ खोया है तो यह कि देश की अंतरात्मा कहीं खो गई है। प्राकृतिक जीवन मूल्यों को हमने कहीं दफन कर दिया है। गांधीजी की समाधि के आसपास ही सही, कहीं तो मानवता की समाधि होती? बापू की समाधि पर फूल तो चढ़ा दिए जाते हैं, लेकिन मानवता दफन रहती है।

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